Friday, December 31, 2010

नए साल की सुबह...(संस्मरण)

( ये संस्मरण मैंने कुछ महीने पहले लिखा था...यादों की कसक से हार कर और हिम्मत कर....लंबा संस्मरण होने की वजह से मैं इसे जारी करने में हिचकता रहा..लेकिन आज जबकि पापा की कही बातें कानों से टकरा रही हैं..नये साल की शुरूआत नई उम्मीदों और नए संकल्पों के नाम करने से पहले मैं उन यादों में समा जाने की कोशिश कर रहा हूं..,.,सिर्फ एक बेटे के तौर पर ही नहीं बल्कि एक कथाकार,पत्रकार, रंगकर्मी और समाज का अहम हिस्सा रह चुके शख्सियत से जुड़ाव के बूते जो महसूस किया,क्रमवार  जारी कर रहा हूं....नए साल पर)



मैं पापा के तौर पर ही जान सका उन्हें...रामेश्वर उपाध्याय किस शख्सियत का नाम है, ये समझने का मौका नहीं मिला शायद..बहुत छोटा था मैं, कहने को उंगुलियां पकड़नी सीख ली थी लेकिन दरअसल उनकी उंगुलियों के स्पर्श के भाव और गहराई को समझने का दौर था, जिस वक्त पापा हमसे दूर चले गए...इसलिए मैं पापा के बारे में ही कुछ लिख सकूंगा..क्योंकि रामेश्वर उपाध्याय के बारे में लिखने की सोच रहा हूं पिछले तीन दिनों से लेकिन शब्द साथ देने को तैयार नहीं है....तस्वीरें जेहन में बिल्कुल ताजा हैं...मैं महसूस कर सकता हूं...ठंड के दिनों में सुबह साढ़े चार बजे का वक्त हुआ करता था जब पापा हमें मॉर्निंग वॉक के लिए उठाते थे..फिर हमसभी रमना मैदान जाते थे टहलने...मैं साइकिल भी चला लेता था वहीं और कभी क्रिकेट खेलता था...छोटा था लेकिन मैं जब खेलता या साइकिल चलाता तो पापा के चेहरे पर खुशी को उस वक्त भी महसूस कर सकता था, हां समझ शायद नहीं थी...आज समझ पाता हूं, ये उस कसक के खिलाफ जीत की खुशी थी जो बचपन से पापा ने महसूस किया होगा...पापा टहलते वक्त तेज कदमों से चलते थे....हरे घास पर..मुझे याद है अक्सर लौटते वक्त कचरा उठाते बच्चों को देखकर उनकी रफ्तार धीमी पड़ती थी..फिर वो हमें दिखाते थे--'ये तुम्हारे ही जैसे बच्चे हैं...लेकिन इन्हें भूख से लड़ने के लिए कचरा चुनना पड़ता है..कचरे में मिले प्लास्टिक और शीशे की बोतलों को बेचकर ये चवन्नी की कमाई करेंगे और तब जाकर आज सुबह की भूख मारने का जुगाड़ हो सकेगा..ये बातें इसलिए नहीं थी कि हमें उनपर दया आए...बल्कि कई दफे सुनने के बाद इन बातों ने तय कर दिया था कि ये लोग जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं..स्ट्रगल फॉर सरवाइवल....वक्त बीता...मुझे क्या पता था कि जिस इंसान की उंगुलियां पकड़कर मैंने चलना सीखा वो एक बेहद दूरदर्शी सोच वाला इंसान है....एक ऐसी शख्सियत जिसकी अपनी नींव उनकी खुद की रखी हुई थी...और हमसे कही गई हर बात का जिंदगी भर साथ देने वाला अर्थ होता था। एक दिन गोला गया था मैं सब्जी लाने, शायद ये दूसरी या तीसरी दफा होगा जब मैं सब्जी लाने के लिए गया हूं..अक्सर भैया जाते थे...गोला पहुंचा तो मेरी क्लास का एक लड़का साग बेचते हुए दिख गया था...मैंने उसे देखा और बिना सब्जी लिए घर की तरफ भागा...आंखें डबडबाई हुईं थीं...शाम का वक्त था, पापा छत परबैठे हुए थे....मैं सीधा छत पर पहुंचा था और पापा ने देखते ही पूछा था क्या हुआ बेटा...मैं फफक कर रो पड़ा था..


मीसा के तहत नजरबंदी के बाद की तस्वीर
 .शायद जिंदगी की ऐसी हकीकत को देखने का पहला मौका था...पापा ने मुझे समझाया...उन बातों ने उस दिन कचरा उठाने वालों से लेकर सब्जी बेचने वाले अपने दोस्त तक की तस्वीर का मर्म समझा दिया था.और उस दिन अपने साथ पढ़ने वाले उस लड़के के लिए जो सम्मान जागा वही नींव शायद पापा रखना चाहते थे...सुबह टहल कर हम वापस आते तो चाय होती..हाफ कप चाय पीते थे पापा..कड़क..बोलते भी थे मम्मी से...मनुआ हाफ कप चाय बनाओ.थोड़ा कड़क...मनु बोलते थे पापा मां को..और अक्सर मनुआ...गर्मी की सुबह हो या फिर ठंड की...सुबह पापा बागवानी जरूर किया करते थे..छत पर उन्होंने करीब 200 पौधे लगाए थे..जिनमें अधिकतर थे गुलाब..गुलाब की नयी कलियां जिस दिन खिलती थीं उस दिन की सादगी सबसे ज्यादा होती थी शायद उनके लिए...सबको आवाज देकर बुलाते थे छत पर से...और उनकी बातों में इतनी गहराई होती थी कि उस कली के खिलने की खुशी को हम महसूस कर लेते थे...जिंदगी भर याद रह जानेवाली दूसरी सीख हमें छत पर खिले कलियों को देखते वक्त ही मिली...पापा बताते थे कली से गुलाब बनने तक का सफर फिर गुलाब की खुबसूरती का चरम और वक्त के साथ उसका मुरझा जाना, हां और ये भी कि अगर किसी ने इसे तोड़ दिया तो उम्र के पहले की मौत का दर्द होगा..उसे भी और उसे देखकर खुश होनेवालों को भी..लेकिन उसके बाद ये भी कि यही संघर्ष जीवन है...। पापा की इस बात का साथ बेहद मजबूत रहा....बहुत मजबूत...। जिस पुराने मकान में रहते थे हम वहां दो कबूतर रहा करते थे मेरे कमरे के ऊपर एक वेंटीलेटर के लिए जगह छोड़ा गया था वहीं उन्होंने घोंसला बनाया था....दिन भर शांत से बैठे रहते..
पत्रकारिता के दौरान की तस्वीर
एक उड़ता फिर कोई डंठी लेकर चला आता..फिर उनके अंडे हुए पांच...और बिल्ली की नजरें गड़ गईं...एक अंडा फूट गया गिरकर, बच्चे हुए तो दो मर गए...पता नहीं कैसे..हमारा मन उदास था और हम तीनों भाई बहन को खाने तक मन नहीं हो रहा था...उस दिन पापा ने फिर समझाया था जिंदगी की लड़ाई को देखने का नजरिया कैसा हो...ये सब मिलकर अब समझ में आती है..महसूस होती हैं..पापा की बातें..संघर्ष करने वालों की जीत होती है....ये सबक जिसने हमारे मन में बीज डाला कि कमजोर लोग जिंदगी से भागते हैं..जिसकी बदौलत हमने पापा की हत्या के बाद आत्महत्या करने की नहीं सोची...जिसकी बदौलत हमने लड़ने की ठानी...और मझधार में तैरने की कोशिश की...
(क्रमश:)

Monday, November 22, 2010

दर्द का हद से गुजरना है दवा बन जाना



(सुरेंद्र स्निग्ध के साथ ये इंटरव्यू मैंने अक्टूबर 2005 में की थी..इस इंटरव्यू की कई बातें अपील करती हैं..पांच साल बाद भी बिहार में बातों का मिजाज तो बदला है लेकिन स्थितियां कमोबेश पुरानी ही है...लिहाजा इस इंटरव्यू को सार्थकता बरकरार होने की वजह से इसे जारी कर रहा हूं...हो सके तो पढ़िए..)

सुरेंद्र स्निग्ध के साथ अमृत उपाध्याय की बातचीत पर आधारित...(13 अक्टूबर 2005 को प्रभात खबर में प्रकाशित)

क्या सत्ता का पुराना समीकरण टूट रहा है? अगर ऐसा है तो इसके मायने क्या होंगे?

बिहार के राजनीतिक मन-मिजाज को दिल्ली नहीं समझ पा रही है। और तो और समाज का चौथा स्तंभ समझा जाने वाला मीडिया भी बिहार के मन-मिजाज को समझने में पूरी तरह असफल है। एयर कंडीशन स्टूडियो और चैंबर में बैठ कर और कुछ मनगढ़ंत सैंपल के आधार पर राजनीतिक विश्लेषण का तरीका अत्यंत हास्यास्पद है, अवैज्ञानिक तो है ही। प्राचीन समय से ही बिहार का राजनीतिक मन-मिजाज एकदम अलग रहा है। जब पूरे विश्व में राजनीतिक सत्ता में लोकतंत्र की सुगबुगाहट भी नहीं थी, तब वैशाली का गणराज्य, लोकतंत्र के स्तंभ के रूप में पूरे विश्व को एक नयी दिशा दिखा रहा था।भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई हो या सत्ता में पिछड़ों की भागीदारी का सवाल या ब्राम्हणवाद के खिलाफ लड़ाई का मजबूत गढ़ उत्तर बिहार या उसके पहले भी बौद्धों या जैनियों के द्वारा ब्राम्हणवाद के खिलाफ पूरे विश्व के परिदृश्य में बिहार को केंद्र के रूप में खड़ा किया गया था। बिहार हमेशा ही राजनीति की मुख्यधारा से अलग अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहा है। इसके समाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक कारण हैं। दरअसल सत्ता का स्वरूप जो केंद्र में रहा, वह बिहार में कभी रहा ही नहीं। सोशलिस्टों का भूमि हड़प आंदोलन हो या जय प्रकाश के नेतृत्व में छात्र आंदोलन। इसके पहले भी एकीकृत बिहार का चाहे मुंडाओं का आंदोलन हो या मुसहरी के अत्यंत पिछड़े समुदायों का आंदोलन। सत्ता का वह रूप जो केंद्र के द्वारा निर्धारित था बिहार ने उसे कभी स्वीकार नहीं किया। जाहिर है, सत्ता का नये-नये समीकरण बिहार में बनते और बिगड़ते रहे हैं। अगर आपका आशय लालू यादव की सत्ता से है, तो मेरा निवेदन है कि लालू यादव नये रूप में फिर आ रहे हैं। भले ही उसका नेतृत्व किन्हीं के हाथों में हो, भीतर लालू ही होंगे। क्योंकि लालू अब सिर्फ एक नाम नहीं हैं, वे प्रवृत्ति हैं, नीतीश कुमार हों या रामविलास पासवान, ये सारे लालू के ही अलग-अलग चेहरे हैं।

बिहार की बदहाली, शासनहीनता और अराजकता का परिणाम क्या हुआ? इसके लिए क्या लालू जिम्मेवार हैं? क्या अब बिहार सही दिशा में जाएगा..

आपका दूसरा सवाल बिहार के बाहर, बिहार की छवि को बदनाम करने के लिए एक सोची समझी साजिश के तहत उठाया गया सवाल है। बिहार इस ग्लोब से बाहर का कोई मानचित्र नहीं है। पूरे वैश्विक परिदृश्य पर बद्हाली, पिछड़ापन, अराजकता इन तमाम स्थितियों के नाम पूंजीवादी शोषक व्यवस्था के द्वारा उठाए गए नाम हैं। परदे के पीछे गैंगमास्टर की भूमिका में हैं, बहुराष्ट्रीय कंपनियां और अमेरिकी सम्राज्यवाद, जो मुखौटा लगा कर इसके पीछे खड़ा है। बिहार अकेला नहीं है, सम्पूर्ण हिंदी पट्टी इसी बद्हाली जी रहा है। तमाम ऐसे प्रदेश हैं जहां का जीवन कृषि आधारित है, पिछड़ा है। सत्ता की लूट-खसोट में शामिल सभी लोग शातिर अपराधी हैं। कोई अपहरण करता है, कोई अपहरण करवाता है, लेकिन आम जीवन कितना सुरक्षित है? कभी इन परिस्थितियों का भी खुलासा किया जाना चाहिए। ऊपर-ऊपर दिखने वाला शांत जल भीतर से सुनामी को समेटे हुए होता है। बिहार को बद्नाम करने के षड्यंत्र का भी पर्दाफाश होना चाहिए। फिर बिहार की जिस बद्हाली की आप बात कर रहे हैं, उसके लिए किसी का भी दस-पन्द्रह वर्षों का शासन काल दोषी नहीं हो सकता। भारत की आजादी के बाद यहां की राजसत्ता पर बदले हुए रूपों में जो लोग काबिज हुए हैं, सारा कुछ उन्हीं के द्वारा खेला जाने वाला नाटक है। आप बार-बार सत्ता की बात कर रहे हैं। हमलोग तो सपने देखने वाले उस जमात के लोग हैं, जो व्यवस्था परिवर्तन की बात सोचते हैं। गद्दी से जॉन के चले जाने के बाद जगदीश के बैठने से कोई अंतर नहीं हो जाता। जबतक मेहनतकश मजदूरों और किसानों या श्रमशील जनता के हाथों में सत्ता की चाभी नहीं होगी, व्यवस्था नहीं बदलेगी। बदलते रहिए लालू की जगह नीतीश, नीतीश की जगह रामविलास या कि सूरजभान या कि मुन्ना शुक्ला या पप्पू यादव, ये नाम अलग-अलग हैं, लेकिन हैं एक ही व्यक्ति का। और सत्ता पर काबिज होगा यही व्यक्ति।

क्या दलित-अतिपिछड़े बिहार में किसी तीसरे धुव्र के निर्माण की ओर बढ़ रहे हैं? यदि हां, तो ये धुव्र कितना ताकतवर होगा?

आपका यह प्रश्न दरअसल अगले प्रश्न के सपनों के साथ जुड़ा हुआ है। दलित के पर्याय अगर रामविलास हैं, अगर पिछड़ों के पर्याय लालू यादव और नीतीश हैं और अल्पसंख्यकों के पर्याय यदि शहनवाज हुसैन या शहाबुद्दीन हैं तो विश्वास कीजिए की बिहार रसातल की ओर जा रहा है। तीसरे विकल्प की कुंजी वामपंथी सोच वाली राजनीति के पास है लेकिन यह कैसा वामपंथ जो आधा रामविलास के साथ जुड़ा हुआ हो और आधा लालू यादव के साथ। नक्सलबाड़ी आंदोलनों से जुड़े हुए राजनीतिक कार्यकर्ता इतने धड़ों में बंटे हुए हैं, कि समझ में नहीं आता कि तीसरा विकल्प बनाएगा कौन। लेकिन आश्वस्त रहिए अराजकताएं जितनी बढ़ेंगी जनता अपना रास्ता तलाशेगी। जनता महान होती है, आप कुछ क्षण के लिए तो उन्हें जरूर ठग सकते हैं, लेकिन अंधेरे में बहुत दिनों तक भटका नहीं सकते। दर्द जब हद से गुजरेगा तो वह दवा जरूर बनेगा- ‘दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना’

लालू का तिलिस्म टूटने की स्थिति में बिहार में बाजार और मध्यवर्ग की क्या स्थिति होगी?

लालू का तिलिस्म टूटा नहीं है। बिहार के पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों ने लालू में अपने सपनों को देखा। पहली बार बिहार की मध्यवर्गीय शक्तियों को अपनी सही शक्ति का एहसास कराया था लालू ने। बिहार में वर्षों से जड़ जमायी हुई सवर्णवादी मानसिकता और सवर्णों,जमींदारों, पुरोहित-पंडितों के द्वारा इन मध्यवर्ती जातियों का समाजिक और सांस्कृतिक शोषण जितना हुआ था, लालू यादव में उसकी मुक्ति का सपना देखा था। लेकिन जब लालू यादव खुद ही सामंती मन-मिजाज में परिवर्तित हो गए। तंत्र-मंत्र और ढकोसलों में लिप्त हो गए। ब्राम्हणवाद का विरोध करते हुए जिस तरह से स्वयं ब्राम्हणवाद का पर्याय हो गए, बिहार के इस बड़े जनसमुदाय की जन-अकांक्षाओं की आकस्मकि मृत्यु हो गई। इन स्थितियों के बाद लालू यादव का तिलिस्म टूटा तो जरूर, लेकिन नए-नए रूपों में ही तिलिस्म कभी नीतीश कुमार के रूप में तो कभी रामविलास पासवान के रूप में खड़े होते रहे या हो रहे हैं, उनके सामने। लेकिन लोग यह भी जान रहे हैं कि नीतीश कुमार के पीछे किस तरह की शक्ति और मानसिकता खड़ी है। फासीवाद, सांप्रदायिक और जनता की गाढ़ी कमाई लूटने वालों को संरक्षण देने वाले ये नेता लालू के बदले सत्ता में बैठ तो जरूर जा सकते हैं लेकिन सही विकल्प कभी नहीं दे सकते। मध्यवर्ग और मध्यवर्ती जातियां ऐसे चौराहों पर खड़े हैं, जहां से विकल्प का कोई रास्ता नहीं खुलता।

बिहार में अपराधीकरण के मसले पर क्या स्थिति बनेगी?

अपराध की प्रवृत्ति, पूंजीवाद की उपज है। पूंजीवाद ने बाजार में जिस तरह के सुनहले सपनों की दुकानें सजा रखी हैं और हर किसी में इन सपनों को खरीदने के लिए जिस तरह की बेचैनी पैदा कर दी है। अपराधीकरण इसी बेचैनी का पर्याय है और यह अपराधीकरण सिर्फ बिहार की समस्या नहीं है। बन्धु, यह है ग्लोबल फेनोमेनन। दुख, पीड़ा, परेशानी, दर्द और आंसुओं की भी मार्केटिंग कर रहा है ये पूंजीवाद। हत्याओं की मार्केटिंग हो रही है। अब आप कह रहे हैं कि कैसा होगा अपराधीकरण भविष्य में। तो सिर्फ यही निवेदन किया जा सकता है कि भविष्य में भी ऐसे ही अपराध होंगे।

बिहार नक्सलवाद का मजबूत गढ़ रहा है। लालू को शासक वर्ग की ओर से यहां नक्सलियों के जवाब के रूप में लाया गया था। अब उसके कमजोर होने की स्थिति में नक्सलवाद की क्या स्थिति होगी?

बिहार समाजवादी आंदोलनों का गढ़ रहा है। बिहार में नक्सलबाड़ी आंदोलन को आधारभूमि देने में इसी वर्ण संघर्ष ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। जहां सामंतों और श्रमिकों के बीच(खेतिहर मजदूर सहित) संघर्ष जैसी पृष्ठभूमि रही है। नक्सलबाड़ी आंदोलन वहां उसी रूप में फैला है। लालू यादव को नक्सलियों के खिलाफ खड़ा किया गया था, मैं इससे पूरी तरह असहमत हूं। मैंने पहले भी कहा है कि लालू यादव बिहार के वृहत्तर पिछड़ी जातियों के सपनों का नाम था। लालू यादव ने युगों से उपेक्षित पिछड़े वर्ग को स्वाभिमान दिया है, यही स्वाभिमान इन जातियों में राजनीतिक भूख के रूप में बदल गया। नक्सलबाड़ी आंदोलनों ने अगर विवेक से काम लिया होता और आधारक्षेत्रों के संघर्षों को विकसित किया होता तो निश्चित रूप से इसके द्वारा लगाई गई फसल या फल को लालू नहीं काट पाते।

पूंजी निवेश से वंचित और आर्थिक विकास की बाजारवादी प्रक्रिया से बहिष्कृत बिहार का क्या भविष्य होगा?

भगौलिक और प्राकृतिक रूप से अविभाजित बिहार धन-धान्य से परिपूर्ण था। झारखंड राज्य अलग होने के बाद शासक वर्ग के हाथों में सोने की थाली मिल गई है। बिहार का अस्सी प्रतिशत राजस्व झारखंड के इलाकों से प्राप्त होता था। शेष बिहार पूरी तरह कृषि आधारित है, और कृषि को आजतक उद्योग का दर्जा हम नहीं दे पाए हैं। शेष बिहार की भगौलिक संरचना देखें, हर साल पूरा इलाका बाढ़ और सूखे से प्रभावित रहा है। जिन इलाकों में नगदी फसलें तैयार हो रही हैं वहां के उद्योग-धंधे वर्षों से बंद हैं, यहां की चीनी मीलें सिर्फ पन्द्रह वर्षों से बंद नहीं हैं, यहां की जूट मील उवर्रक तथा तेलशोधक कारखानें इसलिए बंद नहीं हैं कि बिहार में कोई वैकल्पिक आंतरिक संरचना नहीं बदल रही। गौर कीजिए ये फैक्ट्रियां लगी हैं बिहार में और इसका मुख्यालय है कलकत्ता में। लौह अयस्क निकलता था चाईबासा में, प्रोसेस्ड होता था कलकत्ता में।

नया बिहार बनाने के लिए जरूरत है सिर्फ कल्पनाशीलता की।हर साल आने वाली बाढ़ को नियंत्रित कर उत्पादन की दूसरी दिशाओं में उनकी शक्तियों को लगाया जा सकता है। बिहार में प्रतिभा और श्रम दोनों ही कच्चे माल के रूप में प्रचूर मात्रा में उपलब्ध हैं, आवश्यकता है उत्पादन के रूप में उन्हें ढाल देने की।
                                                                             

Saturday, October 16, 2010

बीच सफर में....

ये सड़कें,


बिल्कुल सपाट सी तो नहीं,

लेकिन इतनी

कि चिढ़ा सकें गांव और कस्बों से

मोटरी बांध कर आए लोगों को,

और लजा जाएं हमारे जैसे चंद लोग।
चंद क्यों, पूरी जमात ही

जो रोटी की तलाश में,

समा गए बड़े शहर में..

जिन्हें सुकून नहीं मिलता सोचकर,

कि भागते दौड़ते लोगों के पीछे लगकर,

सही तो किया न...

लजा तो मैं भी जाता हूं, रोज,

उनकी तरह,

जो नहीं जानते तहजीब

कि, सोये हुए इंसान की खुली आंखें

और खुली आंखों वाला सो रहा इंसान

इस सड़क की जरूरत हैं,

वाज़िब जरूरत, शायद।
                                             ---अमृत उपाध्याय

Thursday, September 16, 2010

जा रहा हूं।

मैं गाँव से जा रहा हूँ


कुछ चीज़ें लेकर जा रहा हूँ
कुछ चीज़ें छोड़कर जा रहा हूँ

मैं गाँव से जा रहा हूँ

किसी सूतक का वस्त्र पहने
पाँच पोर की लग्गी काँख में दबाए

मैं गाँव से जा रहा हूँ

अपना युद्ध हार चुका हूँ मैं
विजेता से पनाह माँगने जा रहा हूँ

मैं गाँव से जा रहा हूँ

खेत चुप हैं हवा ख़ामोश,
धरती से आसमान तक तना है मौन,
मौन के भीतर हाँक लगा रहे हैं मेरे पुरखे... मेरे पित्तर,
उन्हें मिल गई है मेरी पराजय,
मेरे जाने की ख़बर

मुझे याद रखना
मैं गाँव से जा रहा हूँ । 
                                   --निलय उपाध्याय
(निलय उपाध्याय की इस कविता को पिछले कई दिनों से तलाश रहा था...फेसबुक पर एक बार फिर ये कविता पढ़ने को मिली...)

Sunday, August 22, 2010

बाबा...

झुर्रा गई बाबा के देह की चमड़ी,
उनकी हथेली का वो हिस्सा,
जिसके बूते उठाते थे वो,
दाल भात का कौर,
और अक्सर टकराते थे
मेरे होंठ ।
नेनुआ में बूंट की महक 
और कांख से निकलती
पसीने की गंध,
समाती नहीं है अब भीतर,
चुनौती देती है,
कि खोज लो कहीं
तो जानूं।


सात बुर्बकों वाला पंडित भी
गुम हो गया,
वो पाड़ा जिसने पीया था,
सात भैंसों की थान का दूध
और घी,
और टकरा गया था बाघ से,
और उजले छड़ी वाली वो परी
जो मिल जाए तो
लौट आएगा बचपन..
कि कांधा चढ़कर,
फिर घुमाउंगा मैं
बाबा की मूड़ी,
नन्ही उंगुलियों से
दिखाउंगा रास्ता और थकने पर
टेक दूंगा अपनी टुड्ढी,
कि फिर बढ़ जाएंगे बाबा के कदम
वाह लाल्ला जी, वाह लाल्ला जी
करते हुए, सरैयां बाजार
ललकी मिठाई के दुकान की ओर
और फिर सुनूंगा खप्पर वाले
अपने आंगन में खुले आसमान तले
रेडियो की खर्र खर्र और
काकी का चौपाल
और बाबा के कंबल में घुसकर
पूछवाउंगा सवाल कि
कहां हूं मैं..
कि फिर आएगी गहरी नींद,
जो नहीं मयस्सर होती अब
और उठ उठ कर
महसूस करूंगा,
बाबा के देह की छुअन।
सुबह गमछी में नहाएंगे जब
तो लड़ाउंगा डागा (सिर से सिर टकराना)
कइया वाले बोरिंग पर,
और गिरेंगी बारिश की बूंदें,
तो झुर्राई चमड़ियों में समा जाउंगा मैं
और मिल जाएगा बाबा को
उनका लल्ला जी.....
मुझे मेरा बचपन।
                                 ---अमृत उपाध्याय

Sunday, August 15, 2010

आज़ादी की कहानी, आम आदमी की ज़ुबानी..

(महुआ न्यूज़ पर आज़ादी के दिन प्रसारित स्पेशल बुलेटिन का एक हिस्सा....)

मैं आम आदमी हूं... आजाद..आजाद देश और आजाद अवाम का एक हिस्सा हूं..मैं आजाद हूं...अंग्रेजों के खिलाफ मेरे पुरखों के खून जिस मिट्टी पर पसरे थे मैं उसी मिट्टी का एक लाल हूं..जो महसूस करता हूं आजादी को अपनी रगों में...इस आजादी का फक्र मुझे हर दिन सुबह की लालिमा, दोपहर की तल्खी और सांझ के धूसर सौंदर्य में महसूस होता है..लेकिन फिर भी कहीं उदास हूं मैं...जब किसी गांव में नंगा कर दी गई सुखनी डायन बताकर और भीड़ टूट पड़ी उस पर भूखे भेड़िये की तरह, जब देह में धंस रही नजरों की वजह से घर के बाहर जाकर नहीं पढ़ सकी मुन्नी, जब अनाज उपजाने वाले किसान के हाथ में मुट्ठी भर गेहूं समेट सकने से ज्यादा आसान फांसी लगा लेना होता है, जब भूख से मर गया था कानू डोम और सरकारी नुमाइंदों ने नहीं मानी भूख को मौत की वजह...जब नक्सलियों और पुलिस के बीच हर रोज खेला जाता है एक दूसरे को लाशों में तब्दील करने का खेल.....जब प्रांतवाद के नाम पर सड़कों पर रोजी रोटी चलाने वालों पर बरसाईं जाती हैं लाठियां..जब रोज अपने आशियाना को डूबते देख रहे लोगों की बेचैनी पर गाढ़ा होता जाता है सियासत का रंग और सियासतदां के घर के कमरे में फैली रूम फ्रेशनर की खुशबू में दब जाती हैं लाशों से आती बू...तो दरक जाता है मेरा
कलेजा...क्योंकि मैं आम आदमी हूं....आजादी का रंगीन चश्मा पहने आम आदमी...आजादी के आइने में देश के युवाओं के चेहरों पर झुर्रियां और जवान शरीर पर बेड़ियां देख के रोता हूं मैं...और तब लगता है आजादी के इस रंगीन चश्मे का रंग काला पड़ गया और छा गया आंखों के सामने अंधेरा...फिर तलाशने लगता हूं मैं आजादी के मायने...तब लगता है मुझे कि घर में तकिया के भीतर मुंह छिपाकर रो लेना ही आजादी है तो हैं हम आजाद,नहीं तो मुंहतक्की करनी पड़ेगी जनाब...आजादी को महसूस करने के लिए...लेकिन फिर अचानक फड़क जाती हैं मेरी देह..कुछ लोग हैं जो लड़ रहे हैं नंगई के खिलाफ...कुछ तैयार बैठे हैं इस लड़ाई का कंधा बनने के लिए...ये लोग अंदरूनी तौर पर आजादी को खा रही ताकतों से बचाने की फिराक में लहूलुहान कर रहे हैं अपनी देह...कुछ लोग जिंदा हैं और जगे हुए हैं..ये लोग हैं आम आदमी बिल्कुल मेरी तरह..आपकी तरह... यही आस काले चश्मे का रंग फिर रंगीन कर देती है..और फक्र होता है कहने में कि मैं....आम आदमी हूं और मैं आजाद हूं...
                                                                                                                                   ---अमृत उपाध्याय
((इस इकरारनामे को जारी रखते हुए राकेश पाठक की कलम ने बयां किया है ...आज़ादी के दिन इस आम आदमी की अकुलाहट...))
आज न जाने क्यूं ऐसी कोई भी तस्वीर देखने का जी नहीं करता जिसमें परवाज़ की कोई गुंजाइश न दिखे। हर आखिर खास जो है आज का दिन। ज़रा महसूस करिए न अपने आसपास आज के धड़कते इस दिन को। सब वैसे ही है मंदिर की घंटी, अंगीठी में धधकती आग, चाय के गिलास में गिरने का सलीका। हमारी आपकी ज़िंदगी की भागम-भाग, उलझन सब। लेकिन फिर भी दिन खास है।
आज़ाद हवा की खुशबू कहीं अंदर तक उतरती है। कहीं नहीं रुकती थोड़ी देर थमती है फिर निकल चलती है। रंग आजादी के कई हैं...ज़ाएके भी तो हैं...हमारे अपने जाएके...आम आदमी के ज़ाएके...सबके पास अपना हुनर है आज़ादी को महसूस करने का। इसके ज़ाएके को चखने का।
फिर आज़ादी दरस तो ऐसे ही देती है दिन उगने के साथ...उसके बुझने के साथ। इस एहसास के साथ सारा आसमान हमारा न सही तो अपने वतन के ऊपर ठहरा आसमां हमारा है। इसकी पीली सुनहरी धूप हमारे ज़िस्म की हरारत में घुली है कहीं। तो आइए एक चाय के साथ हो जाए हमारी आज़ादी का सेलिब्रेशन....आम आदमी की तरह।
                                                                                                        ----राकेश पाठक

Thursday, August 12, 2010

चांद छुट्टी पर रहा होगा उस रात...

(निखिल आनंद गिरि  ने अपने जन्मदिन के मौके पर ये कविता 'बैठक' पर जारी की थी..कविता को आप भी महसूस कर सकें इसलिए 'बैठक' से साभार लेकर इसे जारी कर रहा हूं...जरूर पढ़िए)

तितर-बितर तारों के दम पर,

चमचम करता होगा रात का लश्कर,
चांद छुट्टी पर रहा होगा उस रात...

एक दो कमरों का घर रहा होगा,
एक दरवाज़ा जिसकी सांकल अटकती होगी,
अधखुले दरवाज़े के बाहर घूमते होंगे पिता
लंबे-लंबे क़दमों से....

हो सकता है पिता न भी हों,
गए हों किसी रोज़मर्रा के काम से
नौकरी करने....
छोड़ गए हों मां को किसी की देखरेख में...
दरवाज़ा फिर भी अधखुला ही होगा...

मां तड़पती होगी बिस्तर पर,
एक बुढ़िया बैठी होगी कलाइयां भींचे....
बाहर खड़ा आदमी चौंकता होगा,
मां की हर चीख पर...

यूं पैदा हुए हम,
जलते गोएठे की गंध में...
यूं खोली आंखे हमने
अमावस की गोद में...

नींद में होगी दीदी,
नींद में होगा भईया..
रतजगा कर रही होगी मां,
मेरे साथ.....चुपचाप।।
चमचम करती होगी रात।।।


नहीं छपा होगा,
मेरे जन्म का प्रमाण पत्र...
नहीं लिए होंगे नर्स ने सौ-दो सौ,
पिता जब अगली सुबह लौटे होंगे घर,
पसीने से तर-बतर,
मुस्कुराएं होंगे मां को देखकर,
मुझे देखा भी होगा कि नहीं,
पंडित के फेर में,
सतइसे के फेर में....

हमारे घर में नहीं है अलबम,
मेरे सतइसे का,
मुंहजुठी का,
या फिर दीदी के साथ पहले रक्षाबंधन का....
फोटो खिंचाने का सुख पता नहीं था मां-बाप को,
मां को जन्मतिथि भी नहीं मालूम अपनी,
मां को नहीं मालूम,
कि अमावस की इस रात में,
मैं चूम रहा हूं एक मां-जैसी लड़की को...
उसकी हथेली मेरे कंधे पर है,
उसने पहन रखे है,
अधखुली बांह वाले कपड़े...
दिखती है उसकी बांह,
केहुनी से कांख तक,

एक टैटू भी है,

जो गुदवाया था उसने दिल्ली हाट में,
एक सौ पचास रुपए में,
ठीक उसी जगह,
मेरी बांह पर भी,
बड़े हो गए हैं जन्म वाले टीके के निशान,
मुझे या मां को नहीं मालूम,
टीके के दाम..

--निखिल आनंद गिरि


Saturday, August 7, 2010

जब मैं सारी रात न सोया

((पांच साल बाद एक बार फिर 'गुनाहों का देवता' पढ़ा..और पढ़ते वक्त एक बार फिर महसूस हुआ कि पहली बार पढ़ते वक्त आंसुओं का बहना यूं ही तो नहीं था...फिर रोया...और फफक कर रोया...'गुनाहों का देवता' से मेरी यादें इस रूप में भी जुड़ी हैं कि इस किताब को पढ़ने के बाद मैंने जो कुछ महसूस किया था, वही मेरी पहली रचना थी, जिसे प्रभात खबर ने प्रकाशित किया....इसलिए अपनी कलम से भले ही ये महत्वपूर्ण लेख ना हो लेकिन मेरे जीवन में इस रचना की अहमियत है...यही सोचकर जारी कर रहा हूं.))


'' और चंदर का हाथ तैश में उठा और एक भरपूर तमाचा सुधा के गाल पर पड़ा..सुधा के गाल पर नीली उंगलियां उपट आईं. वह स्तब्ध, जैसे पत्थर बन गई हो! आंख में आंसू जम गये, पलकों में निगाहें जम गयीं, होठों में आवाजें जम गयीं और सीने में सिसकियां जम गयीं. चंदर ने एक बार सुधा की ओर देखा और कुर्सी पर जैसे गिर पड़ा और सिर पटककर बैठ गया.सुधा कुर्सी के पास जमीन पर बैठ गयी. चंदर के घुटनों पर सिर रख दिया.बड़ी भारी आवाज में बोली-चंदर, देखें तुम्हारे हाथ में चोट तो नहीं आयी''-- गुनाहों का देवता

धर्मवीर भारती का उपन्यास 'गुनाहों का देवता' पढ़ते हुए उसके चरित्रों, खास कर सुधा के प्रति किसी के मन में अपनापन और सम्मान का भाव उत्पन्न होना लाजिमी है.शायद इसीलिए पहली बार इस उपन्यास को पढ़ते हुए ज्यों-ज्यों मैं आगे बढ़ता गया, मेरी आंखें आंसुओं की गर्माहट को लगातार महसूस करती रहीं. हमारे पुरूष प्रधान समाज में पुरूषों के जीवन में रोने के अवसर, खास कर खुल कर रोने के मौके बहुत कम आते हैं. लेकिन डॉ. धर्मवीर भारती के इस उपन्यास ने मुझे यह मौका देने में कहीं चूक नहीं की. सालों बाद मैंने अपने आंसुओं को बेइजाजत बहते हुए पाया. सयानेपन के बोध से परिचित होने के बाद बचपन में कभी भी सहज भाव से निकल आने वाले आंसू कहीं खो से गये थे. लेकिन इस उपन्यास को पढ़कर मैं रोया और सिर्फ रोया नहीं, फफक-फफक कर रोया. इसके पात्र और घटनाएं मेरे मानस पटल पर किसी मित्र-बंधु की तरह अंकित हो गये. तब से जाने कितने दिन-रात चंदर, सुधा, बिनती, डॉ. शुक्ला, गेसू, बिसरिया पम्मी और कैलाश के साथ बीते हैं. बिनती की बातों से हंसा हूं, चंदर की दलीलों में उलझा हूं और सुधा के कष्ट से मेरे हृदय ने वेदना महसूस की है. चंदर और सुधा के रिश्ते अजब हैं. चंदर गर्व की परतों से बना, सूरज का एक गोला है.उसमें सुबह की लालिमा है, दोपहर का तीखापन है, कहीं तिरछी किरणें बादलों के बीच से आंख-मिचौली करती हैं, तो कहीं सांझ का धूसर सौंदर्य है. उसके व्यक्तित्व में विविधता है. लेकिन सुधा चंद्रमा है. बिल्कुल शीतल, चंद्रमा की तरह उसके व्यक्तित्व में परिवर्तन होता है. कभी बचपना है, कभी समझदारी है, कभी वह अपने उम्र के हिसाब से बड़ी बातें किया करती है, तो कभी बच्चों सी छोटी-छोटी शिकायतों में उलझी रहती है. वह मानती है कि वह सूरज(चंदर) के प्रकाश से प्रकाशमान है. वह खुद को तुच्छ समझती है. सुधा चंदर को कभी मां की ममता देती है, कभी बहन की तरह तकरार करती है, कभी पत्नी का दुलार देती है, तो कभी दोस्त जैसा हौसला और संरक्षण. सुधा एक ऐसी तेज है, जो देखने पर दिखती नहीं और नहीं देखने पर बेचैनी बढ़ जाती है. सुधा के चरित्र ने मुझे इतना विवश कर मुझे अपनी ओर खींचा है कि उसकी बातें मन में दोहराने से कतराता रहा हूं, फिर भी उसकी बातें याद रह गयीं हैं. चंदर सुधा का निर्माता नहीं हो सकता, क्योंकि सुधा के ब्याह के साथ ही चंदर का नैतिक पतन आरंभ होता है, पर सुधा वासना के कीचड़ में-जिसे वह नरक समझती थी- रह कर भी कमल की तरह पवित्र रही. चंदर वासना के बहाव में बहता है और तब सुधा के ख्याल को भी वह झटकने लगता है. समय की आंधी से उठे दोष के रेतीले टीले मनुष्य के व्यक्तित्व को इतना जकड़ लेते हैं कि वह उसके सामने घुटने टेक देता है. जैसा चंदर के साथ हुआ वह साधारण आदमी के लिए स्वाभाविक है. इसलिए चंदर सुधा का निर्माता नहीं था. सुधा का स्वभाव उसकी अपनी प्रकृति की देन थी. उसकी पवित्रता में दिखावा नहीं था. लेकिन चंदर समाज,लोग, मजबूरी, प्रतिष्ठा, स्वाभिमान जैसे शब्दों की परिभाषाओं से बंधा था. दरअसल चंदर सुधा द्वारा निर्मित था. सुधा के कारण वह दृढ़ था, इस अहम के साथ कि वह सुधा को आदर्शों के अनुसार ढाल रहा है. सुधा और चंदर में आत्मा और शरीर जैसा संबंध था और सुधा का ब्याह हो जाता है, तब यह आत्मा और शरीर एक दूसरे से अलग हो कर अस्तित्वहीन से हो जाते हैं. उपन्यास के आखिर में चंदर और सुधा की भेंट होती है. चंदर उसके जीवन के आखिरी दिन उसे देख पाता है. अंतत: सुधा अपने अल्हड़पन और समझदारी को समेटे चंदर की गोद में सिर रख कर हमेशा के लिए विदा हो जाती है. उपन्यास के इन पन्नों को पढ़ने के बाद दो दिनों तक मैं असहज रहा, जैसे कोई अपना हमेशा के लिए छोड़ कर चला गया हो, जैसे सालों लंबे साथ के बाद कोई पूरी उम्र नहीं मिलेगा. मैं लड़की की शादी में विदाई के बाद घर में फैले सूनेपन से भर उठा था. आंखें सावन-भादो हो कर सूज गयीं और देह तपने लगी. पूरे दिन कुछ खा न सका, शरबत पी, तो सुधा की शरबत याद आयी, चाय पी, तो चंदन की शरारत याद आयी.....


मेरे शब्द कहीं खो गये थे, मैं इसे पढ़ कर रोता था और बंद कर देने पर आकुल होने लगता था. हार कर मैंने डायरी खोल ली और बस इतना लिख पाया-
 आज मैं सारी रात न सोया,
  होठों को आंसू से धोया,
 सिसकियों ने समझाना चाहा,
 फिर भी दिल का दर्द ना खोया,
आज मैं सारी रात न सोया

Monday, July 12, 2010

हैप्पी बर्थ डे पापा....

13 जुलाई,मेरे लिए बेहद ख़ास तारीख़, कथाकार और पत्रकार रामेश्वर उपाध्याय का जन्मदिन है आज। रामेश्वर उपाध्याय की पहचान एक सशक्त लेखक, जुझारू पत्रकार और ज़िंदादिल इंसान के तौर पर सबसे ज़्यादा रही। चौहत्तर के आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने के साथ-साथ कलम की बदौलत बदलाव की उनकी कोशिश जारी रही। 'मीसा' के तहत नजरबंदी के दौरान ‘नागतंत्र के बीच’ उपन्यास की रचना, चर्चित कहानी संग्रह ‘दुखवा में बीतल रतिया’ और 'गृहयुद्ध' उपन्यास लिखा उन्होंने। बतौर पत्रकार रामेश्वर उपाध्याय ने 'नवभारत टाइम्स', 'धर्मयुग', 'श्रीवर्षा', 'रविवार','न्यूज ट्रैक' और 'सारिका' जैसे अख़बारों और पत्रिकाओं में लगातार लिखा।‘भोजपुर न्यूज़’ अख़बार का संपादन किया। अख़बार और खुद पर कई मुकदमे हो जाने की वजह से उन्होंने वकालत शुरू की।
ये सारी बातें मैं इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि अब से 13 साल पहले 19 अक्टूबर 1997 को रामेश्वर उपाध्याय की हत्या कर दी गई। हत्या के 13 साल बाद, 13 जुलाई को इन बातों का जिक्र इसलिए करना पड़ा क्योंकि उस दौर से इस दौर के बीच का तार कहीं टूट ना जाए। मुझे फ़क्र है बेहद, कि मैं रामेश्वर उपाध्याय का बेटा हूं, और अफसोस, कि उनके जैसे बनने की बचपन से चल रही कोशिश में मैं 99 फीसदी पीछे रह गया। रामेश्वर उपाध्याय से जुड़ी कुछ तस्वीरें और अहमियत वाली कुछ चीज़ें ब्लॉग पर जारी कर रहा हूं। दरअसल मैंने कुछ और लिखा है उनकी याद में, लेकिन यादों को सिलसिलेवार काग़ज़ पर उतारते वक्त काफी लंबा लिख दिया मैंने। अब संकोचवश इसे नहीं जारी कर रहा हूं फिलहाल।
(ऊपर:मीसा के तहत नजरबंदी के
बाद की तस्वीर)
(कमलेश्वर के साथ तमाम लेखकों की ये दुर्लभ तस्वीर है शायद, तस्वीर में बीच में कमलेश्वर हैं, उनके बायें हाथ के ठीक पीछे प्रेम कुमार मणि, उनके हाथ से सटे ठीक बायें मधुकर सिंह, और इन दोनों के बीच में पीछे रामेश्वर उपाध्याय...तस्वीर में दाहिने से दूसरे नंबर पर, जिनका हाथ एक बच्चे के कंधे पर है, वो हैं हृषीकेश सुलभ , सारे लेखकों को मैं दरअसल नहीं पहचान सका हूं अबतक)

                   कथाकार भीष्म साहनी की दृष्टि में....                                      
   
 जमाना सचमुच बदल रहा है। पिछली पीढ़ी के लेखकों का नजरिया आज के यथार्थ के प्रति इतना बेलाग और दो-टूक नहीं हो पाता। शायद इसकी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती, क्योंकि उनकी यादें, उनके संस्कार, बीते कल की उनकी आशाएं-आकांक्षाएं उनके आड़े आती रहती हैं और उनकी दृष्टि को प्रभावित करती रहती हैं। आजादी के पहले के देशव्यापी संघर्ष, लोगों के दिलों में पाई जाने वाली छटपटाहट, देश के जीवन में अनेक व्यक्तियों, राजनयिकों के साथ लगाव और आज के जमाने की बीते जमाने के साथ तुलना करने में ही सारा वक्त बीत जाता है।

नई पीढ़ी का लेखक इन पूर्वाग्रहों से मुक्त है। उसकी नजर आज की नजर है।वह आज के जीवन की विडंबनाओं-विसंगतियों को अतीत के संदर्भ में नहीं देखता, उन्हें आज की नज़र से ही देखता है।
इस संग्रह की अधिकांश कहानियों में भी इस दृष्टि की झलक मिलती है। रामेश्वर उपाध्याय उन चंद युवा कहानीकारों में से हैं, जो इसी बेलाग नज़रिये के कारण अपनी रचनाओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। उनकी कहानियों में- भले ही वे निजी अनुभवों पर आधारित हों,अथवा आस-पास की जिन्दगी में से ली गई हों--एक प्रकार की सादगी, स्पष्टता और पैनापन पाया जाता है। उनकी नजर जिंदगी के अनेक पहलुओं की ओर गई हैं। कहीं हम जेलखाने की ऊंची-ऊंची दीवारों के पीछे जा पहुंचते हैं, तो कहीं गली-चौराहे की भीड़ में अपने को खड़ा पाते हैं, जो एक रिक्शा वाले के पिट जाने पर इकट्ठा हो आती है, या एक तरूण लेखक के मनोद्वेगों के दायरे में, जो अपनी पहली रचना के छप जाने पर इतना उत्साहित है कि जीवन की सभी कटुताएं भूल चुका है। ये सभी कहानियां हमारे सामने जीवन का एक प्रमाणिक एवं सटीक चित्र प्रस्तुत करती हैं। पर इतना ही नहीं, सभी के पीछे लेखक का गहरा लगाव, मानवीय सद्भावना और प्रतिबद्धता भी झलकती है। वह समाज का यथावत चित्रण कर देने से ही संतुष्ट नहीं, वरन परिवर्तन की उन आदतों, ध्वनियों को भी सुनता है,जो बढ़ते जुलूसों की पदचाप में ही नहीं, जेल के सींखचों के पीछे पाए जाने वाली सन्नाटे में भी सुनाई दे जाती है।


रामेश्वर उपाध्याय की कलम से सशक्त, सुन्दर साहित्य पढ़ने को मिलता रहेगा, ऐसा मुझे विश्वास है।


---------------भीष्म साहनी

(नोट-भीष्म साहनी की इस टिप्पणी को रामेश्वर उपाध्याय के चर्चित कहानी संग्रह 'दुखवा में बीतल रतिया' किताब से लिया गया है...)

('नागतंत्र के बीच' उपन्यास की भूमिका से नीचे लिखा अंश लिया गया है...ये रामेश्वर उपाध्याय की जिंदगी के सबसे यादगार दिनों में से एक था...)

'13 सितंबर 1978 को आरा जेल-गेट पर मुझसे मिलने कमलेश्वर, अमरकांत, अजित पुष्कल, मधुकर सिंह और पचास से ऊपर लेखक मित्र आए थे....और उन्होंने मेरे संबंध में यह धारणा बना ली थी कि मैं जेपी की संपूर्ण क्रांति का आदमी होकर जेल में हूं...लेकिन मैं ऐलानिया तौर पर कहना चाहता हूं कि हमारा संबंध वामपंथी ताकतों से था और हम अपनी सही समझदारी के साथ आंदोलन में थे। हां, हमारा दुर्भाग्य यह जरूर रहा कि वामपंथी ताकतें तत्काल कुछ कर नहीं सकीं और नेतृत्व उनके हाथ से निकल जाने के कारण हमें भी संपूर्ण क्रांति का आदमी करार दिया गया।....'
                                                            -रामेश्वर उपाध्याय

(कुछ और तस्वीरें खंगालने के बाद जारी करूंगा उन्हें, और हो सका तो संस्मरण भी जिसे लंबा होने की वजह से आज जारी नहीं कर रहा हूं...)

Wednesday, June 23, 2010

लहरों से लौटकर...

टकरा गए ख्वाब
इस बार,
समंदर की लहरों से
सीधे सीना तान कर,
चकनाचूर भी हो गए,
ना वक्त बचा पाया इन ख्वाबों को
ना परोस पाया कभी
मन के आईने में,
बस कुछ धुंधलकों में दम घुट गया

लहरों में,
टूटकर गिरते ख्वाब के टुकड़ों को
बटोर नहीं सका मैं,
नम आंखों में समेट नहीं सका
यादें,
बस गला भर गया
और फिसल गई हथेली की रेत

                                                                                                                --अमृत उपाध्याय

Tuesday, June 15, 2010

रेलवे की बदहाली पर एविएशन की चांदी







टिकट नहीं मिल रहे हैं आजकल...जल्दी में जाना है तो भूल जाइए,तत्काल में टिकट लेना सपना हो गया है जिसका पूरा होना बेहद मुश्किल है...ऐसे में टिकट लें तो कैसे..सोचकर रोआं सिहर जा रहा है कि तत्काल में टिकट कैसे हो..किस दरबार पर दस्तक दी जाए.....ममता दीदी के राज में हालत खस्ता है,जो लोग मुंह भर-भर के लालू यादव के रेलवे राज को कोसते रहे थे वो भी अब कह रहे हैं लालू यादव रेलमंत्री थे तो ठीक था, कम से कम कुछ जुगाड़ हो जाता था...वीवीआईपी कोटा में कटौती कर के 24 पर ला दिया गया है तो सोर्स पैरवी का भी जमाना लद गया...अभी आरा जाना था तो मैंने भी खूब नाक रगड़ी टिकट नहीं मिला, खैर भला हो इस नौकरी का जिसकी बदौलत बने सरोकार की वजह से जा सका..अब उड़ीसा जाना है ...नक्सली लगातार ट्रेनों को निशाना बना रहे हैं..नक्सली इलाकों से होकर गुजरने वाली ट्रेनों को अब रात में नहीं चलाया जा रहा है...समस्या के समाधान का ये तरीका बेहद आश्चर्यजनक है..सरकार एक तरफ लोहा लेने का दावा करती है दूसरी तरफ घुटने टेकने वाले डिसीजन्स....चले जाइए किसी भी वक्त उन ट्रेनों में या फिर दिल्ली स्टेशन पर पता चल जाएगा सुरक्षा के लिए सरकार के हाय हाय का सच...सरकार ने ट्रेन या प्लेटफॉर्म्स की सुरक्षा बढ़ाने की बजाए ट्रेन को 24-25 घंटा देरी कर चलाने का निर्णय ले लिया..मतलब सुरक्षा हर कीमत पर....आईआरसीटीसी का साइट जब निराश कर देता है तो तुरंत उंगलियां टिपटिपानी पड़ती हैं फ्लाइट की पोजिशन देखने के लिए। इस बार उड़ीसा जाने के लिए मेक माई ट्रिप का साइट खोला, सोच रखा था मैंने,चार या साढ़े चार हजार या फिर ज्यादा से ज्यादा पांच हजार रूपए जेब से ढीले करने पड़ेंगे, पहुंच जाउंगा जगह पर, लेकिन नहीं कम से कम सात हजार के करीब का टिकट....अब सवाल ये कि आखिर हरेक रूट की तमाम ट्रेनों के पैक होने के बावजूद स्पेशल ट्रेनों की संख्या में इजाफा नहीं करना, मीडिया द्वारा दलालों का टिकट ब्लैक करने की खबर दिखाना और रेलवे की उसपर हामी के बावजूद धड़ल्ले से दलालों का रेलवे पर राज, ममता दीदी का रेलवे की तरफ पीठ कर बंगाल की सियासत पर ढीठ गड़ाए रखना,क्या ये सब महज संयोग है...भगवान करें संयोग ही हो लेकिन कुछ दिन पहले एयर इंडिया को लेकर मीडिया में आ रही खबरों पर जरा फिर से गौर करिए एक बार, फ्लैशबैक में जाकर, एयर इंडिया की हालत ऐसी है कि उसे मदद की दरकार पहले से ही थी, एविएशन लाइन भारत में बुरे दौर से गुजर रहा है, सरकार ने आर्थिक मदद को लेकर हाथ खड़े कर दिए, एयर इंडिया के कर्मचारी रोज हड़ताल पर ही रहते हैं, तमाम बडे उद्योगपति एयरलाइंस में जिनका इन्वेस्टमेंट है और जिनके सरकारी नुमाइंदों के साथ सरोकार को देखने से ज्यादा समझना पड़ता है, उनकी सरकार से गुहार....रेलवे में टिकट की मारामारी के बाद फ्लाइट्स के लिए लोग अमूमन ट्राई करते हैं, वैसे लोग भी जो अक्सरहां तो फ्लाइट से नहीं चलते हैं लेकिन इतना खर्च वहन कर सकते हैं कि जरूरत ज्यादा हो तो उड़ान भर सकें....ऐसे में कहीं मिडिल क्लास के पॉकेट से पैसे उगलवाने का ये सरकारी फॉर्मूला भी हो सकता है इससे इनकार नहीं किया जा सकता...क्योंकि रेलवे की बदहाली पर एविएशन की चांदी है इस वक्त...तो जरा सोचिए कि भोपाल गैस कांड के आरोपी वॉरेन एंडरसन को देश से भगा देने वाली कांग्रेस की सरकार क्या एविएशन को बुरे दौर से उबारने के लिए ये चालाकी नहीं कर सकती...

Sunday, April 25, 2010

हृषिकेश सुलभ को इंदु शर्मा कथा सम्मान

वर्ष 2010 के लिए अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान कहानीकार और नाटककार-रंगचि‍न्‍तक हृषीकेश सुलभ को राजकमल प्रकाशन से 2009 में प्रकाशित उनके कहानी संग्रह वसंत के हत्यारे पर देने का निर्णय लिया गया है। इस सम्मान के अन्तर्गत दिल्ली-लंदन-दिल्ली का आने-जाने का हवाई यात्रा का टिकट (एअर इंडिया द्वारा प्रायोजित) एअरपोर्ट टैक्स़, इंगलैंड के लिए वीसा शुल्क़, एक शील्ड, शॉल, लंदन में एक सप्ताह तक रहने की सुविधा तथा लंदन के खास-खास दर्शनीय स्थलों का भ्रमण आदि शामिल होंगे। यह सम्मान श्री हृषीकेश सुलभ को लंदन के हाउस ऑफ कॉमन्स में 08 जुलाई 2010 की शाम को एक भव्य आयोजन में प्रदान किया जायेगा। सम्‍मान समारोह में भारत और विदेशों में रचे जा रहे साहित्‍य पर गंभीर चिंतन भी किया जायेगा। 15 फ़रवरी 1955 को बिहार के सि‍वान जि‍ले के लहेजी गाँव में जनमे कथाकार, नाटककार, रंग-चि‍न्‍तक हृषीकेश सुलभ की विगत तीन दशकों से कथा-लेखन, नाट्‌य-लेखन, रंगकर्म के साथ-साथ सांस्कृतिक आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी रही है। आपके कहानी संग्रह ‘बसंत के हत्‍यारे’, ‘तूती की आवाज़’, ‘बँधा है काल’, ‘वधस्थल से छलाँग’ और ‘पत्थरकट’ प्रकाशित हैं। रंगचि‍न्‍तन की पुस्‍तक ‘रंगमंच का जनतंत्र’ के अलावा तीन मौलि‍क नाटक ‘अमली’, ‘बटोही’ और ‘धरती आबा’ तथा संस्‍कृत नाटक मृच्‍छकटि‍क की पुनर्रचना ‘माटीगाड़ी’ और रेणु के उपन्‍यास ‘मैला आंचल’ का नाटयान्‍तर प्रका‍शि‍त हैं।

Wednesday, March 24, 2010

मथुरा से लौटकर.....

कहानी रामदास से शुरू नहीं होती है फिर भी कर रहा हूं।रामदास..ये जनाब बिल्कुल नहीं चाहते थे कि महुआ न्यूज की ओबी वैन वृंदावन की संकरी गलियों में कहीं फिट हो जाए और हम लाइव देने के अपने मंसूबे में कामयाब हो जाएं। बिल्कुल भी नहीं। दरअसल होली वाले दिन हमें वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर से ही लाइव करनी थी और उसके ठीक एक दिन पहले हम होली गेट पर होलिकादहन कवर कर रहे थे।लिहाजा ओबी को रात 12 के करीब होली गेट से हमने मूव कराया।पहले ही लगा था कि ओबी को जगह नहीं मिलेगी।जी न्यूज की दो ओबी के पीछे महुआ न्यूज की ओबी लगी तो लेकिन ट्रैक करने में दिक्कत आ गई।सो हमने पास ही एकमात्र बड़े मकान के दरबान रामदास से बिनती की।लेकिन रामदास का स्टफ जनाब आईएएस फेल कर दिया इन्होंने।नहीं तो नहीं।जब मैंने घर के मालिक से मिलना चाहा तो जवाब मिला वो तो होते नहीं हैं इस वक्त..भला हो हाते में घूमती एक महिला का जिन्होंने रामदास को मालिक से भेंट कराने के लिए कह दिया तब जाकर ये जनाब ले गए हमें। गेट पर पहुंचे, एकबार कॉलबेल बजायी और इससे पहले कि अंदर से कोई जवाब मिले रामदास फूट पड़े....नहीं हैं साहब ...निकल गए हैं। खैर किसी तरह भेंट हो 
   गई महोदय से जो कि मंदिर के प्रबंधन कमिटी के सदस्य थे...तब जाकर महुआ न्यूज पर मथुरा लाइव मिला।खैर..ये तो बात हुई रामदास की लेकिन जब भी किसी यादगार यात्रा की बात होगी तो मन में पूरी बन चुकी दिल्ली टू मथुरा फिल्म का रील धड़ाक से घूम जाएगा।यकीन मानिए...अद्भुत यात्रा...महुआ न्यूज के दफ्तर से बाहर निकले तो परिसर में होली खेली जा रही थी जमके...ऑफिस की होली होनी थी और हम उसी बीच जा रहे थे लिहाजा मन थोड़ा उदास भी था..लेकिन पेशे की मजबूरी। ऑफिस से पहले ही तय था कि बड़ी गाड़ी में सवार होके जाएंगे। लेकिन बड़ी गाड़ी में बैठते होली का सारा रंग काफूर हो गया..मिजाज बिगड़ गया बिल्कुल..गाड़ी में एसी नहीं..और तो और म्यूजिक भी नहीं...बिरहा की रात कैसे कटे ये सवाल खड़ा हो गया। खैर हुआ बवाल तो तुरंत गाड़ी चेंज कर दी गई..विथ एसी एंड म्यूजिक..सिर्फ टवेरा से मामला क्वालिस पर आ गया था।चल दिए हम नये उत्साह और मिजाज के साथ।  
ये सुभान है...हमारा ड्राइवर। तस्वीर थोड़ी धुंधली है
लेकिन जानबूझकर लगायी है। जिस अंदाज के ये ड्राइवर हैं कहीं किसी की भी भिड़ंत में मुलाकात हो सकती है तो पुलिस वुलिस के चक्कर में थोड़ी राहत हो इसलिए पहचान धुंधली रखनी पड़ी है इनकी। खैर..सुभान की गाड़ी चल पड़ी...विथ एसी...लेकिन थोड़ी दूर जाने पर गर्मी जैसा महसूस हुआ...पूछा मैंने जब,तो पता चला कि इस गाड़ी की एसी चलती भर है...ठंड का एहसास नहीं कराती...दिमाग भन्ना गया फिर भी हम हंस रहे थे। थ्री इडियट्स में जब से ऑल इज वेल का कांसेप्ट आया..गुस्से में ज्यादा ही हंसी आती है..सो हंस रहे थे..एसी की हार के बाद मैंने कहा म्यूजिक चलाओ यार..बस फिर क्या था। सुभान ने एक पेचकस निकालकर ठूंस दिया डीवीडी प्लेयर के साइड में..मतलब गाड़ी का गियर अलग और म्यूजिक प्लेयर का गियर अलग। कहानी इतनी भी होती तो चल बन जाता। गाने को टुकड़ों में सुनने का आनंद जीवन में पहली बार मिला...सोचिए अगर आपको एक गाने की बीस लाइनों को किश्त में सुनाया जाए तो कैसा महसूस होगा...जी हां..वैसा ही मुझे लग रहा था। और तो और जैसे ही एक छोटा गड्ढा आता म्यूजिक बंद..फिर अगले गड्ढे का इंतजार कि कब पहिये फिर हिचकोला दें तो गाना शुरू हो...और गाना भी मस्त...टूटे दिल आशिक की दास्तां। सुनकर हंसी भी आ रही थी और रोना भी..थोड़ा इंटरेस्ट इसलिए जरूर था क्योंकि तमाम गाने पहली बार कान में पड़ रहे थे, किश्तों में....मजेदार यात्रा...रास्ते भर एसी और म्यूजिक प्लेयर ठीक करवाने की सोचते रहे..लेकिन गाड़ी रूकी अंशु ढाबा पर...मतलब मथुरा में ही
करीब-करीब। खाना वाना हुआ..और फिर हुआ कि अब एसी कल ठीक कराएंगे, अभी जगह पर पहुंचते हैं...वहीं से रवीन्द्र की इंट्री हो जाती है फोन से...रवीन्द्र मथुरा के रिपोर्टर हैं महुआ न्यूज के। उन्होंने चार कमरे बुक करवा दिए थे जन्मभूमि के पास। बस पहुंच गए हम..रवीन्द्र होली कवरेज में व्यस्त था सो हम खुद ही पहुंच गए होटल। फिर मथुरा का आनंद शुरू हो गया..होटल के रिसेप्शन पर एक सज्जन लगे फॉर्म भरवाने...नाम पता लिखवा दिया फिर पूछा हुजूर ने, कहां से आएं हैं...मैंने बताया दिल्ली से। नहीं ऐसे नहीं, इस बातचीत को बातचीत के अंदाज में ही पढ़िए तो बेहतर होगा,
कहां से आएं हैं..
दिल्ली से
कहां जाएंगे..
मन में आया कह दूं इंगलैंड लेकिन भांग के मौसम में कौन पंगा ले सो कह दिया दिल्ली
कितने लोग हैं आपलोग...
(मैं और मेरी सहयोगी लावनी के लिए दो कमरे बुक थे बाकी साथी दूसरे होटल में थे...और वहां हम दोनों ही खड़े थे)..मैंने कहा दो
कहां हैं दोनों लोग
अब धीरे धीरे मेरा पारा चढ़ रहा था..
फिर भी मैंने कहा हमीं दोनों हैं
कितने मेल कितने फीमेल
ऑल इज वेल का कांसेप्ट तोड़ते हुए मैंने पूछा उससे-- मूर्ख हो क्या तुम..जब एक मेल एक फीमेल ही खड़े हैं तो पूछ क्या रहे हो..
जवाब मिला-- सर गुस्साइए मत फॉर्म तो भरना पड़ेगा न..इन्क्वायरी होता है..
मैं समझ गया ज्यादा बोलना मतलब ओल पर माटी ढोना बराबर है..ओल पर माटी ढोना हमारे यहां की कहावत है...
एक मेल एक फीमेल लिखवाने के बाद असल सवाल जिसे सुनने के बाद फिर से हंसी आनी शुरू हो गई..
सवाल आया........और बच्चे
अब मैं समझ गया यहां भांग की महिमा है..
थोड़ा रौद्र रूप दिखाया तो जल्दी से उसने सामान रूम में शिफ्ट करवा दिया और फिर थोड़ी राहत मिली चाय का ऑर्डर देने के लिए मैंने रिसेप्शन पर फोन घुमा दिया...अस्सी के दशक की तरह आवाज सुनने में परेशानी। ऊधर से होटल वाला बोल रहा है-- क्या, इधर से मैं बता भी रहा हूं कि चाय लाओ और सुनने की कोशिश भी कर रहा हूं कि वो बोल क्या रहा है..खैर किसी तरह चाय का दर्शन हुआ...हां, पूरे मथुरा ट्रिप में एक बात तो कहूंगा कि चाय बेहतरीन मिलती है यहां...चाय पीने पर मिजाज बन गया जनाब...बड़े खुशमिजाजी के साथ मैंने चाय लाने वाले होटल के कर्मचारी से कहा कि भई ये फोन खराब है तुम्हारा...उसने सिर हिलाया और बताने के अंदाज में कहा...फोन खराब है..मैं समझ नहीं पाया ये मेरे कंप्लेन का जवाब है या सूचना... मैंने पूछा उससे कि यार तुम मुझे बता रहे हो कि मेरी सुन रहे हो..मैंने कहा कि तुम्हारी आवाज नहीं आ रही थी इसमें...तो उसने बड़े सतर्क भाव से कहा कि आपकी भी आवाज नहीं आ रही थी उधर..मैंने कहा तो ठीक कराओ न..तो बहुत मासूमियत से जवाब मिला नहीं इसमें तो वोल्यूम की प्रोब्लेम है न इसलिए..अब मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि ये संयोग भर है या मथुरा की खासियत...खैर फिर हम भागमभाग में फंसे...तय हुआ आज यहां के बाजार में सैर करेंगे और सुबह सुबह द्वारिकाधीश मंदिर से लाइव रहेंगे...पहुंच गए हम सुबह द्वारिकाधीश मंदिर..
                                                                                                        ( आगे की कहानी फिर किसी दिन)

Monday, March 15, 2010

समाज चीज़ों को तय करता है मीडिया नहीं

(अनिल चमड़िया के साथ ये बातचीत प्रभात खबर ने 22 जून 2007 को छापी थी, मीडिया के नये स्वरूप और कार्यशैली पर बहस तेज है, ऐसे में प्रासंगिकता के लिहाज से इसे ब्लॉग पर जारी करना उचित लगा)



पत्रकारिता की नयी और पुरानी समझ में क्या अंतर है?

-- हमारे वक्त में किसी को साहस नहीं था कि वह खुद को प्रोफेशनल कह सके. हमारी समाज के प्रति जिम्मेदारियां थीं. अब के पत्रकार सीधे तौर पर इसे कैरियर कहते हैं. मेरे ख्याल से कमिटमेंट और प्रोफेशनल की परिभाषाएं, दृष्टिकोण को दर्शाती हैं. हमलोगों की भूख थी, गहराई में जाकर चीजों को समझने की. अब वह भूख नहीं है. अब के लिए यह नौकरी है. पद या पैसों की प्रोन्नति मिलती रहे, इसकी अहमियत है. बुनियादी तौर पर ये बदलाव तेजी से आये हैं. अच्छी पत्रकारिता के मायने अब वही हैं जो टेलीविजन में दिख रहा है. हमारे समझ में नयी समझ लाने की होड़ थी. नये सोच विकसित करनेवाले पत्रकारों का दबदबा था. अब ज्यादा से ज्यादा ग्लैमर नाम का दबाव है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसका प्रभाव बढ़ा है.

पत्रकारिता के क्षेत्र में तेजी से आया बदलाव कितना सार्थक सिद्ध हुआ?
--बदलाव तो होना ही चाहिए, इसके बगैर समाज जड़ हो जायेगा. लेकिन जब प्रश्न है सार्थकता की तो देखनेवाली बात है कि बदलाव का स्रोत क्या है? यदि समाज बदलाव एक गति से कर रहा है, विमर्श के बाद कर रहा है, तब समाज को उसे स्वीकार कर उसके साथ रहने में दिक्कत पेश नहीं आती, लेकिन बदलाव यदि थोपा जाये तो समाज उसके साथ सहज नहीं हो पाता. घोषित तौर पर यदि हम पहले कहते थे कि मीडिया चौथा स्तंभ है तो बाद के समय में यह सत्ता के चौथे स्तंभ के रूप में दिखने लगा. 1995 से यह न तो सरकार का रहा, न लोकतंत्र का, यह बाजार का मुख्य स्तंभ बन गया. टीवी में समाज के 10 से 15 प्रतिशत लोगों का चेहरा दिखता है. अखबारों में आठ से दस प्रतिशत आबादी का रिफ्लेक्शन दिखता है. कुछ हिस्से के लिए यह हो सकता है. सार्थक मध्य वर्ग के खाने में 8-10 आइटम होते थे तो अब 200 आइटम हैं. हमारे समय में बच्चे कला की ओर रूझान रखते थे. अब ऐसा नहीं है , वे डांस करना चाहते हैं और क्लीपिंग विभिन्न टीवी कार्यक्रमों तक पहुंचाना चाहते हैं. सुविधा संपन्न लोगों के लिए यह सार्थकता हो सकती है लेकिन निम्न वर्ग के उत्पीड़न के लिए औजारों में इससे इजाफा हुआ है. वह और दबाया गया है.

व्यवसायीकरण का पत्रकारिता पर कितना गहरा प्रभाव दिख रहा है?
व्यवसायीकरण कल भी था. कल भी अखबार बिड़ला, डालमिया, गोयनका ही निकालते थे. आज भी रिलायंस, गोयल परिवार, जैन परिवार ही इसे चला रहे हैं. व्यवसायी के हाथ में मीडिया शुरू से ही है. कल भी, आज भी क्योंकि इसके लिए पूंजी की आवश्यकता है, लेकिन कल जो व्यवसायी अखबार निकालता था, वह इतने निर्लज्ज तरीके से बात नहीं कर पाता था जैसे आज कर रहा है. कोई भी व्यवसायी व्यवसाय एक मर्यादा में या समाज द्वारा निर्धारित एक सीमा में तभी तक करता है , जब तक समाज उसे ऐसा करने के लिए कह रहा है. बंधन हो तो व्यवसायी इससे आगे नहीं जायेगा. लेकिन इससे व्यवसायी का गुण खत्म नहीं हो जायेगा. समाज के दबाव में है वह, लेकिन उसकी मूल प्रवृत्ति है- कम समय में ज्यादा से पूंजी अर्जित करना. ऐसे में समाजिक दबाव में ढील पड़ते ही वह हद से आगे बढ़ जायेगा. पिछले 10-15 वर्षों में स्थिति आयी है कि व्यवसायी वर्ग पर समाज का दबाव नहीं रह गया है. या कहें तो समाज को ऐसे विकसित किया गया कि वह छिन्न- भिन्न हो जाये. और मौका देखते ही व्यवसायी हावी हो गया. अब कोई अन्तर नहीं रह गया प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक में. जो अखबार निकाल रहे हैं वे ही चैनल चला रहे हैं, तो अंतर कहां है. व्यवसायीकरण बुरा नहीं है. लेकिन अगर नैतिकता व अनुशासन न हो तो दिक्कत है और तब वह अपने नंगे रूप में खड़ा हो जाता है. आज डॉक्टर दूसरा व्यवसायी है क्योंकि वह समाज की सीमाओं को तोड़ रहा है. यही हाल मीडिया का है.

निजी चैनलों की होड़ में स्तरीयता कितनी बरकरार है?
--स्तरीयता की उम्मीद ही नहीं की जा सकती. तकनीक कभी विकसित हो सकती है, लेकिन तकनीक का इस्तेमाल हर समाज अपने तरीके से करता है. आदिवासी समाज अलग तरीके से उपयोग करेगा तो महिलाएं अलग, ताकि विकास हो. साथ ही पूंजीपति भी इसका इस्तेमाल करेगा. टीवी आया था सरकारी टेलीविजन के रूप में. यानी सरकारी पूंजी लगा अर्थात जनता का पैसा लगा. जाहिर तौर पर सरकार का लक्ष्य पैसे के रूप में मुनाफा कमाने का नहीं था.समाज को जागरूक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विकसित बनाना था. बहस का मुद्दा है कि किस हद तक उद्देश्य पूरा हुआ. निजी चैनल मतलब निजी पूंजी के बल पर तकनीक का इस्तेमाल. निजी चैनल लोकतंत्र की रक्षा या समाज को सांस्कृतिक मजबूती देने के लिए नहीं आये. जिसने पूंजी लगायी उसने उस संस्कृति का विकास करना चाहा जिससे पूंजी का विकास हो. पूंजीपति वर्ग में बहुत सारे लोग हैं, इस बीच का एक व्यक्ति निकला जो संगठन के बीच से स्तर का निर्धारण कर रहा है. बाजार के बहुत तरह के व्यवसायियों का वैचारिक संगठन है जो घोषित नहीं है. यह एक सहज समझौता है . वे जानते हैं कि किस तरह के सीरियल बनाने से किस तरह की साड़ियां, लिपिस्टिक और जूते बिकेंगे. हमलोग समाजिक दृष्टिकोण से स्तरीयता की बात करते हैं, जिसकी उम्मीद अब नहीं की जा सकती.

समाज में मीडिया की वर्तमान भूमिका समाज के लिए कितनी संतोषप्रद है?
--संतोषजनक है, उसके लिए जो यह सोचता है कि जेसिका लाल हत्याकांड में मीडिया ने सजा दिलवायी. पता नहीं कितनी जेसिका लाल हमारे गांवों में शहरों में हैं, जिन्हें कोई नहीं जानता. जो आदमी बिना अपराध के जीवन भर जेल में रहा उसके लिए क्या? लोगों ने देखा, गड्ढे में लड़का गिरा और मीडिया ने उसे कैसे बचाया, लेकिन हकीकत है कि मीडिया के पास उस दिन इससे ज्यादा रोमांचक चित्र नहीं था. फिल्म कंपनी चलाने के पूरे फॉर्मूले थे, उस सीन के पास. क्या नहीं था, बच्चा था, लोगों की भावनाएं थीं, गड्ढा था. यहां कैमरे की दृष्टि से कोई समाजिक प्रतिबद्धता नहीं है. वरना रोज कितने मजदूर दब कर मरते हैं, कौन जान सका? कितने ही बच्चे रोज मरते हैं, लेकिन उन खबरों में कैमरे को स्वाद नहीं मिलती. लोग नहीं जानते कि टीवी चैनलों में कौन-सी भाषा चलती है. एक भाषा चली ' डाऊन मार्केट' की जिसमें अधनंगा बदन, शोषित गरीब , बिना चप्पल के पैर, निर्दोषों की अधनंगी लाशें दिखती हैं. दूसरी भाषा है 'अपमार्केट' की जिसमें ब्यूटीपार्लर से निकलता चमकता चेहरा, ब्रांडेड जूता, परिधान से लदे लोग दिखते हैं. 'डाऊन मार्केट ' की पत्रकारिता करने वालों को और उस पृष्ठभूमि वालों को खदेड़ दिया जाता है अब.

आनेवाले समय में पत्रकारिता का कैसा भविष्य देख रहै हैं?
समाज चीजों को तय करता है. मेरे ख्याल से एक्जिस्टिंग मीडिया पर फिर से समाज का दबाव बनेगा. नंगई जिस तरह से हो रही है, उस पर अंकुश लगेगा. समाज ने आंदोलन पहले भी चलाया है. समाज आज भी आंदोलित है. बहसें हो रही हैं.बहसों को समृद्ध करने की तैयारी हो रही है. मीडिया को समाज को चलाने की इजाजत मिलेगी, मुझे नहीं लगता.

(अनिल चमड़िया से अमृत उपाध्याय की बातचीत)

Thursday, March 11, 2010

बंदूक की फसल

                    --अमृत उपाध्याय
घर के पिछुआड़े,
बोई थी कुछ बन्दूकें
कुछ दाने और कारतूस।


इस बार घर गया
तो खोजा,
बन्दूक की फसल
बर्बाद हो गई शायद।


पता नहीं क्यों,
नहीं उगे बंदूक
और ना दाने कारतूस बन पाए।


क्यों न रोता,
फफक कर रोया,
अपनी जहरीली हंसी को भूल,
वही जिसने झुलसा दी शायद
बंदूक की फसल...।