Saturday, October 16, 2010

बीच सफर में....

ये सड़कें,


बिल्कुल सपाट सी तो नहीं,

लेकिन इतनी

कि चिढ़ा सकें गांव और कस्बों से

मोटरी बांध कर आए लोगों को,

और लजा जाएं हमारे जैसे चंद लोग।
चंद क्यों, पूरी जमात ही

जो रोटी की तलाश में,

समा गए बड़े शहर में..

जिन्हें सुकून नहीं मिलता सोचकर,

कि भागते दौड़ते लोगों के पीछे लगकर,

सही तो किया न...

लजा तो मैं भी जाता हूं, रोज,

उनकी तरह,

जो नहीं जानते तहजीब

कि, सोये हुए इंसान की खुली आंखें

और खुली आंखों वाला सो रहा इंसान

इस सड़क की जरूरत हैं,

वाज़िब जरूरत, शायद।
                                             ---अमृत उपाध्याय