Wednesday, March 24, 2010

मथुरा से लौटकर.....

कहानी रामदास से शुरू नहीं होती है फिर भी कर रहा हूं।रामदास..ये जनाब बिल्कुल नहीं चाहते थे कि महुआ न्यूज की ओबी वैन वृंदावन की संकरी गलियों में कहीं फिट हो जाए और हम लाइव देने के अपने मंसूबे में कामयाब हो जाएं। बिल्कुल भी नहीं। दरअसल होली वाले दिन हमें वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर से ही लाइव करनी थी और उसके ठीक एक दिन पहले हम होली गेट पर होलिकादहन कवर कर रहे थे।लिहाजा ओबी को रात 12 के करीब होली गेट से हमने मूव कराया।पहले ही लगा था कि ओबी को जगह नहीं मिलेगी।जी न्यूज की दो ओबी के पीछे महुआ न्यूज की ओबी लगी तो लेकिन ट्रैक करने में दिक्कत आ गई।सो हमने पास ही एकमात्र बड़े मकान के दरबान रामदास से बिनती की।लेकिन रामदास का स्टफ जनाब आईएएस फेल कर दिया इन्होंने।नहीं तो नहीं।जब मैंने घर के मालिक से मिलना चाहा तो जवाब मिला वो तो होते नहीं हैं इस वक्त..भला हो हाते में घूमती एक महिला का जिन्होंने रामदास को मालिक से भेंट कराने के लिए कह दिया तब जाकर ये जनाब ले गए हमें। गेट पर पहुंचे, एकबार कॉलबेल बजायी और इससे पहले कि अंदर से कोई जवाब मिले रामदास फूट पड़े....नहीं हैं साहब ...निकल गए हैं। खैर किसी तरह भेंट हो 
   गई महोदय से जो कि मंदिर के प्रबंधन कमिटी के सदस्य थे...तब जाकर महुआ न्यूज पर मथुरा लाइव मिला।खैर..ये तो बात हुई रामदास की लेकिन जब भी किसी यादगार यात्रा की बात होगी तो मन में पूरी बन चुकी दिल्ली टू मथुरा फिल्म का रील धड़ाक से घूम जाएगा।यकीन मानिए...अद्भुत यात्रा...महुआ न्यूज के दफ्तर से बाहर निकले तो परिसर में होली खेली जा रही थी जमके...ऑफिस की होली होनी थी और हम उसी बीच जा रहे थे लिहाजा मन थोड़ा उदास भी था..लेकिन पेशे की मजबूरी। ऑफिस से पहले ही तय था कि बड़ी गाड़ी में सवार होके जाएंगे। लेकिन बड़ी गाड़ी में बैठते होली का सारा रंग काफूर हो गया..मिजाज बिगड़ गया बिल्कुल..गाड़ी में एसी नहीं..और तो और म्यूजिक भी नहीं...बिरहा की रात कैसे कटे ये सवाल खड़ा हो गया। खैर हुआ बवाल तो तुरंत गाड़ी चेंज कर दी गई..विथ एसी एंड म्यूजिक..सिर्फ टवेरा से मामला क्वालिस पर आ गया था।चल दिए हम नये उत्साह और मिजाज के साथ।  
ये सुभान है...हमारा ड्राइवर। तस्वीर थोड़ी धुंधली है
लेकिन जानबूझकर लगायी है। जिस अंदाज के ये ड्राइवर हैं कहीं किसी की भी भिड़ंत में मुलाकात हो सकती है तो पुलिस वुलिस के चक्कर में थोड़ी राहत हो इसलिए पहचान धुंधली रखनी पड़ी है इनकी। खैर..सुभान की गाड़ी चल पड़ी...विथ एसी...लेकिन थोड़ी दूर जाने पर गर्मी जैसा महसूस हुआ...पूछा मैंने जब,तो पता चला कि इस गाड़ी की एसी चलती भर है...ठंड का एहसास नहीं कराती...दिमाग भन्ना गया फिर भी हम हंस रहे थे। थ्री इडियट्स में जब से ऑल इज वेल का कांसेप्ट आया..गुस्से में ज्यादा ही हंसी आती है..सो हंस रहे थे..एसी की हार के बाद मैंने कहा म्यूजिक चलाओ यार..बस फिर क्या था। सुभान ने एक पेचकस निकालकर ठूंस दिया डीवीडी प्लेयर के साइड में..मतलब गाड़ी का गियर अलग और म्यूजिक प्लेयर का गियर अलग। कहानी इतनी भी होती तो चल बन जाता। गाने को टुकड़ों में सुनने का आनंद जीवन में पहली बार मिला...सोचिए अगर आपको एक गाने की बीस लाइनों को किश्त में सुनाया जाए तो कैसा महसूस होगा...जी हां..वैसा ही मुझे लग रहा था। और तो और जैसे ही एक छोटा गड्ढा आता म्यूजिक बंद..फिर अगले गड्ढे का इंतजार कि कब पहिये फिर हिचकोला दें तो गाना शुरू हो...और गाना भी मस्त...टूटे दिल आशिक की दास्तां। सुनकर हंसी भी आ रही थी और रोना भी..थोड़ा इंटरेस्ट इसलिए जरूर था क्योंकि तमाम गाने पहली बार कान में पड़ रहे थे, किश्तों में....मजेदार यात्रा...रास्ते भर एसी और म्यूजिक प्लेयर ठीक करवाने की सोचते रहे..लेकिन गाड़ी रूकी अंशु ढाबा पर...मतलब मथुरा में ही
करीब-करीब। खाना वाना हुआ..और फिर हुआ कि अब एसी कल ठीक कराएंगे, अभी जगह पर पहुंचते हैं...वहीं से रवीन्द्र की इंट्री हो जाती है फोन से...रवीन्द्र मथुरा के रिपोर्टर हैं महुआ न्यूज के। उन्होंने चार कमरे बुक करवा दिए थे जन्मभूमि के पास। बस पहुंच गए हम..रवीन्द्र होली कवरेज में व्यस्त था सो हम खुद ही पहुंच गए होटल। फिर मथुरा का आनंद शुरू हो गया..होटल के रिसेप्शन पर एक सज्जन लगे फॉर्म भरवाने...नाम पता लिखवा दिया फिर पूछा हुजूर ने, कहां से आएं हैं...मैंने बताया दिल्ली से। नहीं ऐसे नहीं, इस बातचीत को बातचीत के अंदाज में ही पढ़िए तो बेहतर होगा,
कहां से आएं हैं..
दिल्ली से
कहां जाएंगे..
मन में आया कह दूं इंगलैंड लेकिन भांग के मौसम में कौन पंगा ले सो कह दिया दिल्ली
कितने लोग हैं आपलोग...
(मैं और मेरी सहयोगी लावनी के लिए दो कमरे बुक थे बाकी साथी दूसरे होटल में थे...और वहां हम दोनों ही खड़े थे)..मैंने कहा दो
कहां हैं दोनों लोग
अब धीरे धीरे मेरा पारा चढ़ रहा था..
फिर भी मैंने कहा हमीं दोनों हैं
कितने मेल कितने फीमेल
ऑल इज वेल का कांसेप्ट तोड़ते हुए मैंने पूछा उससे-- मूर्ख हो क्या तुम..जब एक मेल एक फीमेल ही खड़े हैं तो पूछ क्या रहे हो..
जवाब मिला-- सर गुस्साइए मत फॉर्म तो भरना पड़ेगा न..इन्क्वायरी होता है..
मैं समझ गया ज्यादा बोलना मतलब ओल पर माटी ढोना बराबर है..ओल पर माटी ढोना हमारे यहां की कहावत है...
एक मेल एक फीमेल लिखवाने के बाद असल सवाल जिसे सुनने के बाद फिर से हंसी आनी शुरू हो गई..
सवाल आया........और बच्चे
अब मैं समझ गया यहां भांग की महिमा है..
थोड़ा रौद्र रूप दिखाया तो जल्दी से उसने सामान रूम में शिफ्ट करवा दिया और फिर थोड़ी राहत मिली चाय का ऑर्डर देने के लिए मैंने रिसेप्शन पर फोन घुमा दिया...अस्सी के दशक की तरह आवाज सुनने में परेशानी। ऊधर से होटल वाला बोल रहा है-- क्या, इधर से मैं बता भी रहा हूं कि चाय लाओ और सुनने की कोशिश भी कर रहा हूं कि वो बोल क्या रहा है..खैर किसी तरह चाय का दर्शन हुआ...हां, पूरे मथुरा ट्रिप में एक बात तो कहूंगा कि चाय बेहतरीन मिलती है यहां...चाय पीने पर मिजाज बन गया जनाब...बड़े खुशमिजाजी के साथ मैंने चाय लाने वाले होटल के कर्मचारी से कहा कि भई ये फोन खराब है तुम्हारा...उसने सिर हिलाया और बताने के अंदाज में कहा...फोन खराब है..मैं समझ नहीं पाया ये मेरे कंप्लेन का जवाब है या सूचना... मैंने पूछा उससे कि यार तुम मुझे बता रहे हो कि मेरी सुन रहे हो..मैंने कहा कि तुम्हारी आवाज नहीं आ रही थी इसमें...तो उसने बड़े सतर्क भाव से कहा कि आपकी भी आवाज नहीं आ रही थी उधर..मैंने कहा तो ठीक कराओ न..तो बहुत मासूमियत से जवाब मिला नहीं इसमें तो वोल्यूम की प्रोब्लेम है न इसलिए..अब मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि ये संयोग भर है या मथुरा की खासियत...खैर फिर हम भागमभाग में फंसे...तय हुआ आज यहां के बाजार में सैर करेंगे और सुबह सुबह द्वारिकाधीश मंदिर से लाइव रहेंगे...पहुंच गए हम सुबह द्वारिकाधीश मंदिर..
                                                                                                        ( आगे की कहानी फिर किसी दिन)

Monday, March 15, 2010

समाज चीज़ों को तय करता है मीडिया नहीं

(अनिल चमड़िया के साथ ये बातचीत प्रभात खबर ने 22 जून 2007 को छापी थी, मीडिया के नये स्वरूप और कार्यशैली पर बहस तेज है, ऐसे में प्रासंगिकता के लिहाज से इसे ब्लॉग पर जारी करना उचित लगा)



पत्रकारिता की नयी और पुरानी समझ में क्या अंतर है?

-- हमारे वक्त में किसी को साहस नहीं था कि वह खुद को प्रोफेशनल कह सके. हमारी समाज के प्रति जिम्मेदारियां थीं. अब के पत्रकार सीधे तौर पर इसे कैरियर कहते हैं. मेरे ख्याल से कमिटमेंट और प्रोफेशनल की परिभाषाएं, दृष्टिकोण को दर्शाती हैं. हमलोगों की भूख थी, गहराई में जाकर चीजों को समझने की. अब वह भूख नहीं है. अब के लिए यह नौकरी है. पद या पैसों की प्रोन्नति मिलती रहे, इसकी अहमियत है. बुनियादी तौर पर ये बदलाव तेजी से आये हैं. अच्छी पत्रकारिता के मायने अब वही हैं जो टेलीविजन में दिख रहा है. हमारे समझ में नयी समझ लाने की होड़ थी. नये सोच विकसित करनेवाले पत्रकारों का दबदबा था. अब ज्यादा से ज्यादा ग्लैमर नाम का दबाव है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसका प्रभाव बढ़ा है.

पत्रकारिता के क्षेत्र में तेजी से आया बदलाव कितना सार्थक सिद्ध हुआ?
--बदलाव तो होना ही चाहिए, इसके बगैर समाज जड़ हो जायेगा. लेकिन जब प्रश्न है सार्थकता की तो देखनेवाली बात है कि बदलाव का स्रोत क्या है? यदि समाज बदलाव एक गति से कर रहा है, विमर्श के बाद कर रहा है, तब समाज को उसे स्वीकार कर उसके साथ रहने में दिक्कत पेश नहीं आती, लेकिन बदलाव यदि थोपा जाये तो समाज उसके साथ सहज नहीं हो पाता. घोषित तौर पर यदि हम पहले कहते थे कि मीडिया चौथा स्तंभ है तो बाद के समय में यह सत्ता के चौथे स्तंभ के रूप में दिखने लगा. 1995 से यह न तो सरकार का रहा, न लोकतंत्र का, यह बाजार का मुख्य स्तंभ बन गया. टीवी में समाज के 10 से 15 प्रतिशत लोगों का चेहरा दिखता है. अखबारों में आठ से दस प्रतिशत आबादी का रिफ्लेक्शन दिखता है. कुछ हिस्से के लिए यह हो सकता है. सार्थक मध्य वर्ग के खाने में 8-10 आइटम होते थे तो अब 200 आइटम हैं. हमारे समय में बच्चे कला की ओर रूझान रखते थे. अब ऐसा नहीं है , वे डांस करना चाहते हैं और क्लीपिंग विभिन्न टीवी कार्यक्रमों तक पहुंचाना चाहते हैं. सुविधा संपन्न लोगों के लिए यह सार्थकता हो सकती है लेकिन निम्न वर्ग के उत्पीड़न के लिए औजारों में इससे इजाफा हुआ है. वह और दबाया गया है.

व्यवसायीकरण का पत्रकारिता पर कितना गहरा प्रभाव दिख रहा है?
व्यवसायीकरण कल भी था. कल भी अखबार बिड़ला, डालमिया, गोयनका ही निकालते थे. आज भी रिलायंस, गोयल परिवार, जैन परिवार ही इसे चला रहे हैं. व्यवसायी के हाथ में मीडिया शुरू से ही है. कल भी, आज भी क्योंकि इसके लिए पूंजी की आवश्यकता है, लेकिन कल जो व्यवसायी अखबार निकालता था, वह इतने निर्लज्ज तरीके से बात नहीं कर पाता था जैसे आज कर रहा है. कोई भी व्यवसायी व्यवसाय एक मर्यादा में या समाज द्वारा निर्धारित एक सीमा में तभी तक करता है , जब तक समाज उसे ऐसा करने के लिए कह रहा है. बंधन हो तो व्यवसायी इससे आगे नहीं जायेगा. लेकिन इससे व्यवसायी का गुण खत्म नहीं हो जायेगा. समाज के दबाव में है वह, लेकिन उसकी मूल प्रवृत्ति है- कम समय में ज्यादा से पूंजी अर्जित करना. ऐसे में समाजिक दबाव में ढील पड़ते ही वह हद से आगे बढ़ जायेगा. पिछले 10-15 वर्षों में स्थिति आयी है कि व्यवसायी वर्ग पर समाज का दबाव नहीं रह गया है. या कहें तो समाज को ऐसे विकसित किया गया कि वह छिन्न- भिन्न हो जाये. और मौका देखते ही व्यवसायी हावी हो गया. अब कोई अन्तर नहीं रह गया प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक में. जो अखबार निकाल रहे हैं वे ही चैनल चला रहे हैं, तो अंतर कहां है. व्यवसायीकरण बुरा नहीं है. लेकिन अगर नैतिकता व अनुशासन न हो तो दिक्कत है और तब वह अपने नंगे रूप में खड़ा हो जाता है. आज डॉक्टर दूसरा व्यवसायी है क्योंकि वह समाज की सीमाओं को तोड़ रहा है. यही हाल मीडिया का है.

निजी चैनलों की होड़ में स्तरीयता कितनी बरकरार है?
--स्तरीयता की उम्मीद ही नहीं की जा सकती. तकनीक कभी विकसित हो सकती है, लेकिन तकनीक का इस्तेमाल हर समाज अपने तरीके से करता है. आदिवासी समाज अलग तरीके से उपयोग करेगा तो महिलाएं अलग, ताकि विकास हो. साथ ही पूंजीपति भी इसका इस्तेमाल करेगा. टीवी आया था सरकारी टेलीविजन के रूप में. यानी सरकारी पूंजी लगा अर्थात जनता का पैसा लगा. जाहिर तौर पर सरकार का लक्ष्य पैसे के रूप में मुनाफा कमाने का नहीं था.समाज को जागरूक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विकसित बनाना था. बहस का मुद्दा है कि किस हद तक उद्देश्य पूरा हुआ. निजी चैनल मतलब निजी पूंजी के बल पर तकनीक का इस्तेमाल. निजी चैनल लोकतंत्र की रक्षा या समाज को सांस्कृतिक मजबूती देने के लिए नहीं आये. जिसने पूंजी लगायी उसने उस संस्कृति का विकास करना चाहा जिससे पूंजी का विकास हो. पूंजीपति वर्ग में बहुत सारे लोग हैं, इस बीच का एक व्यक्ति निकला जो संगठन के बीच से स्तर का निर्धारण कर रहा है. बाजार के बहुत तरह के व्यवसायियों का वैचारिक संगठन है जो घोषित नहीं है. यह एक सहज समझौता है . वे जानते हैं कि किस तरह के सीरियल बनाने से किस तरह की साड़ियां, लिपिस्टिक और जूते बिकेंगे. हमलोग समाजिक दृष्टिकोण से स्तरीयता की बात करते हैं, जिसकी उम्मीद अब नहीं की जा सकती.

समाज में मीडिया की वर्तमान भूमिका समाज के लिए कितनी संतोषप्रद है?
--संतोषजनक है, उसके लिए जो यह सोचता है कि जेसिका लाल हत्याकांड में मीडिया ने सजा दिलवायी. पता नहीं कितनी जेसिका लाल हमारे गांवों में शहरों में हैं, जिन्हें कोई नहीं जानता. जो आदमी बिना अपराध के जीवन भर जेल में रहा उसके लिए क्या? लोगों ने देखा, गड्ढे में लड़का गिरा और मीडिया ने उसे कैसे बचाया, लेकिन हकीकत है कि मीडिया के पास उस दिन इससे ज्यादा रोमांचक चित्र नहीं था. फिल्म कंपनी चलाने के पूरे फॉर्मूले थे, उस सीन के पास. क्या नहीं था, बच्चा था, लोगों की भावनाएं थीं, गड्ढा था. यहां कैमरे की दृष्टि से कोई समाजिक प्रतिबद्धता नहीं है. वरना रोज कितने मजदूर दब कर मरते हैं, कौन जान सका? कितने ही बच्चे रोज मरते हैं, लेकिन उन खबरों में कैमरे को स्वाद नहीं मिलती. लोग नहीं जानते कि टीवी चैनलों में कौन-सी भाषा चलती है. एक भाषा चली ' डाऊन मार्केट' की जिसमें अधनंगा बदन, शोषित गरीब , बिना चप्पल के पैर, निर्दोषों की अधनंगी लाशें दिखती हैं. दूसरी भाषा है 'अपमार्केट' की जिसमें ब्यूटीपार्लर से निकलता चमकता चेहरा, ब्रांडेड जूता, परिधान से लदे लोग दिखते हैं. 'डाऊन मार्केट ' की पत्रकारिता करने वालों को और उस पृष्ठभूमि वालों को खदेड़ दिया जाता है अब.

आनेवाले समय में पत्रकारिता का कैसा भविष्य देख रहै हैं?
समाज चीजों को तय करता है. मेरे ख्याल से एक्जिस्टिंग मीडिया पर फिर से समाज का दबाव बनेगा. नंगई जिस तरह से हो रही है, उस पर अंकुश लगेगा. समाज ने आंदोलन पहले भी चलाया है. समाज आज भी आंदोलित है. बहसें हो रही हैं.बहसों को समृद्ध करने की तैयारी हो रही है. मीडिया को समाज को चलाने की इजाजत मिलेगी, मुझे नहीं लगता.

(अनिल चमड़िया से अमृत उपाध्याय की बातचीत)

Thursday, March 11, 2010

बंदूक की फसल

                    --अमृत उपाध्याय
घर के पिछुआड़े,
बोई थी कुछ बन्दूकें
कुछ दाने और कारतूस।


इस बार घर गया
तो खोजा,
बन्दूक की फसल
बर्बाद हो गई शायद।


पता नहीं क्यों,
नहीं उगे बंदूक
और ना दाने कारतूस बन पाए।


क्यों न रोता,
फफक कर रोया,
अपनी जहरीली हंसी को भूल,
वही जिसने झुलसा दी शायद
बंदूक की फसल...।