Sunday, August 22, 2010

बाबा...

झुर्रा गई बाबा के देह की चमड़ी,
उनकी हथेली का वो हिस्सा,
जिसके बूते उठाते थे वो,
दाल भात का कौर,
और अक्सर टकराते थे
मेरे होंठ ।
नेनुआ में बूंट की महक 
और कांख से निकलती
पसीने की गंध,
समाती नहीं है अब भीतर,
चुनौती देती है,
कि खोज लो कहीं
तो जानूं।


सात बुर्बकों वाला पंडित भी
गुम हो गया,
वो पाड़ा जिसने पीया था,
सात भैंसों की थान का दूध
और घी,
और टकरा गया था बाघ से,
और उजले छड़ी वाली वो परी
जो मिल जाए तो
लौट आएगा बचपन..
कि कांधा चढ़कर,
फिर घुमाउंगा मैं
बाबा की मूड़ी,
नन्ही उंगुलियों से
दिखाउंगा रास्ता और थकने पर
टेक दूंगा अपनी टुड्ढी,
कि फिर बढ़ जाएंगे बाबा के कदम
वाह लाल्ला जी, वाह लाल्ला जी
करते हुए, सरैयां बाजार
ललकी मिठाई के दुकान की ओर
और फिर सुनूंगा खप्पर वाले
अपने आंगन में खुले आसमान तले
रेडियो की खर्र खर्र और
काकी का चौपाल
और बाबा के कंबल में घुसकर
पूछवाउंगा सवाल कि
कहां हूं मैं..
कि फिर आएगी गहरी नींद,
जो नहीं मयस्सर होती अब
और उठ उठ कर
महसूस करूंगा,
बाबा के देह की छुअन।
सुबह गमछी में नहाएंगे जब
तो लड़ाउंगा डागा (सिर से सिर टकराना)
कइया वाले बोरिंग पर,
और गिरेंगी बारिश की बूंदें,
तो झुर्राई चमड़ियों में समा जाउंगा मैं
और मिल जाएगा बाबा को
उनका लल्ला जी.....
मुझे मेरा बचपन।
                                 ---अमृत उपाध्याय

Sunday, August 15, 2010

आज़ादी की कहानी, आम आदमी की ज़ुबानी..

(महुआ न्यूज़ पर आज़ादी के दिन प्रसारित स्पेशल बुलेटिन का एक हिस्सा....)

मैं आम आदमी हूं... आजाद..आजाद देश और आजाद अवाम का एक हिस्सा हूं..मैं आजाद हूं...अंग्रेजों के खिलाफ मेरे पुरखों के खून जिस मिट्टी पर पसरे थे मैं उसी मिट्टी का एक लाल हूं..जो महसूस करता हूं आजादी को अपनी रगों में...इस आजादी का फक्र मुझे हर दिन सुबह की लालिमा, दोपहर की तल्खी और सांझ के धूसर सौंदर्य में महसूस होता है..लेकिन फिर भी कहीं उदास हूं मैं...जब किसी गांव में नंगा कर दी गई सुखनी डायन बताकर और भीड़ टूट पड़ी उस पर भूखे भेड़िये की तरह, जब देह में धंस रही नजरों की वजह से घर के बाहर जाकर नहीं पढ़ सकी मुन्नी, जब अनाज उपजाने वाले किसान के हाथ में मुट्ठी भर गेहूं समेट सकने से ज्यादा आसान फांसी लगा लेना होता है, जब भूख से मर गया था कानू डोम और सरकारी नुमाइंदों ने नहीं मानी भूख को मौत की वजह...जब नक्सलियों और पुलिस के बीच हर रोज खेला जाता है एक दूसरे को लाशों में तब्दील करने का खेल.....जब प्रांतवाद के नाम पर सड़कों पर रोजी रोटी चलाने वालों पर बरसाईं जाती हैं लाठियां..जब रोज अपने आशियाना को डूबते देख रहे लोगों की बेचैनी पर गाढ़ा होता जाता है सियासत का रंग और सियासतदां के घर के कमरे में फैली रूम फ्रेशनर की खुशबू में दब जाती हैं लाशों से आती बू...तो दरक जाता है मेरा
कलेजा...क्योंकि मैं आम आदमी हूं....आजादी का रंगीन चश्मा पहने आम आदमी...आजादी के आइने में देश के युवाओं के चेहरों पर झुर्रियां और जवान शरीर पर बेड़ियां देख के रोता हूं मैं...और तब लगता है आजादी के इस रंगीन चश्मे का रंग काला पड़ गया और छा गया आंखों के सामने अंधेरा...फिर तलाशने लगता हूं मैं आजादी के मायने...तब लगता है मुझे कि घर में तकिया के भीतर मुंह छिपाकर रो लेना ही आजादी है तो हैं हम आजाद,नहीं तो मुंहतक्की करनी पड़ेगी जनाब...आजादी को महसूस करने के लिए...लेकिन फिर अचानक फड़क जाती हैं मेरी देह..कुछ लोग हैं जो लड़ रहे हैं नंगई के खिलाफ...कुछ तैयार बैठे हैं इस लड़ाई का कंधा बनने के लिए...ये लोग अंदरूनी तौर पर आजादी को खा रही ताकतों से बचाने की फिराक में लहूलुहान कर रहे हैं अपनी देह...कुछ लोग जिंदा हैं और जगे हुए हैं..ये लोग हैं आम आदमी बिल्कुल मेरी तरह..आपकी तरह... यही आस काले चश्मे का रंग फिर रंगीन कर देती है..और फक्र होता है कहने में कि मैं....आम आदमी हूं और मैं आजाद हूं...
                                                                                                                                   ---अमृत उपाध्याय
((इस इकरारनामे को जारी रखते हुए राकेश पाठक की कलम ने बयां किया है ...आज़ादी के दिन इस आम आदमी की अकुलाहट...))
आज न जाने क्यूं ऐसी कोई भी तस्वीर देखने का जी नहीं करता जिसमें परवाज़ की कोई गुंजाइश न दिखे। हर आखिर खास जो है आज का दिन। ज़रा महसूस करिए न अपने आसपास आज के धड़कते इस दिन को। सब वैसे ही है मंदिर की घंटी, अंगीठी में धधकती आग, चाय के गिलास में गिरने का सलीका। हमारी आपकी ज़िंदगी की भागम-भाग, उलझन सब। लेकिन फिर भी दिन खास है।
आज़ाद हवा की खुशबू कहीं अंदर तक उतरती है। कहीं नहीं रुकती थोड़ी देर थमती है फिर निकल चलती है। रंग आजादी के कई हैं...ज़ाएके भी तो हैं...हमारे अपने जाएके...आम आदमी के ज़ाएके...सबके पास अपना हुनर है आज़ादी को महसूस करने का। इसके ज़ाएके को चखने का।
फिर आज़ादी दरस तो ऐसे ही देती है दिन उगने के साथ...उसके बुझने के साथ। इस एहसास के साथ सारा आसमान हमारा न सही तो अपने वतन के ऊपर ठहरा आसमां हमारा है। इसकी पीली सुनहरी धूप हमारे ज़िस्म की हरारत में घुली है कहीं। तो आइए एक चाय के साथ हो जाए हमारी आज़ादी का सेलिब्रेशन....आम आदमी की तरह।
                                                                                                        ----राकेश पाठक

Thursday, August 12, 2010

चांद छुट्टी पर रहा होगा उस रात...

(निखिल आनंद गिरि  ने अपने जन्मदिन के मौके पर ये कविता 'बैठक' पर जारी की थी..कविता को आप भी महसूस कर सकें इसलिए 'बैठक' से साभार लेकर इसे जारी कर रहा हूं...जरूर पढ़िए)

तितर-बितर तारों के दम पर,

चमचम करता होगा रात का लश्कर,
चांद छुट्टी पर रहा होगा उस रात...

एक दो कमरों का घर रहा होगा,
एक दरवाज़ा जिसकी सांकल अटकती होगी,
अधखुले दरवाज़े के बाहर घूमते होंगे पिता
लंबे-लंबे क़दमों से....

हो सकता है पिता न भी हों,
गए हों किसी रोज़मर्रा के काम से
नौकरी करने....
छोड़ गए हों मां को किसी की देखरेख में...
दरवाज़ा फिर भी अधखुला ही होगा...

मां तड़पती होगी बिस्तर पर,
एक बुढ़िया बैठी होगी कलाइयां भींचे....
बाहर खड़ा आदमी चौंकता होगा,
मां की हर चीख पर...

यूं पैदा हुए हम,
जलते गोएठे की गंध में...
यूं खोली आंखे हमने
अमावस की गोद में...

नींद में होगी दीदी,
नींद में होगा भईया..
रतजगा कर रही होगी मां,
मेरे साथ.....चुपचाप।।
चमचम करती होगी रात।।।


नहीं छपा होगा,
मेरे जन्म का प्रमाण पत्र...
नहीं लिए होंगे नर्स ने सौ-दो सौ,
पिता जब अगली सुबह लौटे होंगे घर,
पसीने से तर-बतर,
मुस्कुराएं होंगे मां को देखकर,
मुझे देखा भी होगा कि नहीं,
पंडित के फेर में,
सतइसे के फेर में....

हमारे घर में नहीं है अलबम,
मेरे सतइसे का,
मुंहजुठी का,
या फिर दीदी के साथ पहले रक्षाबंधन का....
फोटो खिंचाने का सुख पता नहीं था मां-बाप को,
मां को जन्मतिथि भी नहीं मालूम अपनी,
मां को नहीं मालूम,
कि अमावस की इस रात में,
मैं चूम रहा हूं एक मां-जैसी लड़की को...
उसकी हथेली मेरे कंधे पर है,
उसने पहन रखे है,
अधखुली बांह वाले कपड़े...
दिखती है उसकी बांह,
केहुनी से कांख तक,

एक टैटू भी है,

जो गुदवाया था उसने दिल्ली हाट में,
एक सौ पचास रुपए में,
ठीक उसी जगह,
मेरी बांह पर भी,
बड़े हो गए हैं जन्म वाले टीके के निशान,
मुझे या मां को नहीं मालूम,
टीके के दाम..

--निखिल आनंद गिरि


Saturday, August 7, 2010

जब मैं सारी रात न सोया

((पांच साल बाद एक बार फिर 'गुनाहों का देवता' पढ़ा..और पढ़ते वक्त एक बार फिर महसूस हुआ कि पहली बार पढ़ते वक्त आंसुओं का बहना यूं ही तो नहीं था...फिर रोया...और फफक कर रोया...'गुनाहों का देवता' से मेरी यादें इस रूप में भी जुड़ी हैं कि इस किताब को पढ़ने के बाद मैंने जो कुछ महसूस किया था, वही मेरी पहली रचना थी, जिसे प्रभात खबर ने प्रकाशित किया....इसलिए अपनी कलम से भले ही ये महत्वपूर्ण लेख ना हो लेकिन मेरे जीवन में इस रचना की अहमियत है...यही सोचकर जारी कर रहा हूं.))


'' और चंदर का हाथ तैश में उठा और एक भरपूर तमाचा सुधा के गाल पर पड़ा..सुधा के गाल पर नीली उंगलियां उपट आईं. वह स्तब्ध, जैसे पत्थर बन गई हो! आंख में आंसू जम गये, पलकों में निगाहें जम गयीं, होठों में आवाजें जम गयीं और सीने में सिसकियां जम गयीं. चंदर ने एक बार सुधा की ओर देखा और कुर्सी पर जैसे गिर पड़ा और सिर पटककर बैठ गया.सुधा कुर्सी के पास जमीन पर बैठ गयी. चंदर के घुटनों पर सिर रख दिया.बड़ी भारी आवाज में बोली-चंदर, देखें तुम्हारे हाथ में चोट तो नहीं आयी''-- गुनाहों का देवता

धर्मवीर भारती का उपन्यास 'गुनाहों का देवता' पढ़ते हुए उसके चरित्रों, खास कर सुधा के प्रति किसी के मन में अपनापन और सम्मान का भाव उत्पन्न होना लाजिमी है.शायद इसीलिए पहली बार इस उपन्यास को पढ़ते हुए ज्यों-ज्यों मैं आगे बढ़ता गया, मेरी आंखें आंसुओं की गर्माहट को लगातार महसूस करती रहीं. हमारे पुरूष प्रधान समाज में पुरूषों के जीवन में रोने के अवसर, खास कर खुल कर रोने के मौके बहुत कम आते हैं. लेकिन डॉ. धर्मवीर भारती के इस उपन्यास ने मुझे यह मौका देने में कहीं चूक नहीं की. सालों बाद मैंने अपने आंसुओं को बेइजाजत बहते हुए पाया. सयानेपन के बोध से परिचित होने के बाद बचपन में कभी भी सहज भाव से निकल आने वाले आंसू कहीं खो से गये थे. लेकिन इस उपन्यास को पढ़कर मैं रोया और सिर्फ रोया नहीं, फफक-फफक कर रोया. इसके पात्र और घटनाएं मेरे मानस पटल पर किसी मित्र-बंधु की तरह अंकित हो गये. तब से जाने कितने दिन-रात चंदर, सुधा, बिनती, डॉ. शुक्ला, गेसू, बिसरिया पम्मी और कैलाश के साथ बीते हैं. बिनती की बातों से हंसा हूं, चंदर की दलीलों में उलझा हूं और सुधा के कष्ट से मेरे हृदय ने वेदना महसूस की है. चंदर और सुधा के रिश्ते अजब हैं. चंदर गर्व की परतों से बना, सूरज का एक गोला है.उसमें सुबह की लालिमा है, दोपहर का तीखापन है, कहीं तिरछी किरणें बादलों के बीच से आंख-मिचौली करती हैं, तो कहीं सांझ का धूसर सौंदर्य है. उसके व्यक्तित्व में विविधता है. लेकिन सुधा चंद्रमा है. बिल्कुल शीतल, चंद्रमा की तरह उसके व्यक्तित्व में परिवर्तन होता है. कभी बचपना है, कभी समझदारी है, कभी वह अपने उम्र के हिसाब से बड़ी बातें किया करती है, तो कभी बच्चों सी छोटी-छोटी शिकायतों में उलझी रहती है. वह मानती है कि वह सूरज(चंदर) के प्रकाश से प्रकाशमान है. वह खुद को तुच्छ समझती है. सुधा चंदर को कभी मां की ममता देती है, कभी बहन की तरह तकरार करती है, कभी पत्नी का दुलार देती है, तो कभी दोस्त जैसा हौसला और संरक्षण. सुधा एक ऐसी तेज है, जो देखने पर दिखती नहीं और नहीं देखने पर बेचैनी बढ़ जाती है. सुधा के चरित्र ने मुझे इतना विवश कर मुझे अपनी ओर खींचा है कि उसकी बातें मन में दोहराने से कतराता रहा हूं, फिर भी उसकी बातें याद रह गयीं हैं. चंदर सुधा का निर्माता नहीं हो सकता, क्योंकि सुधा के ब्याह के साथ ही चंदर का नैतिक पतन आरंभ होता है, पर सुधा वासना के कीचड़ में-जिसे वह नरक समझती थी- रह कर भी कमल की तरह पवित्र रही. चंदर वासना के बहाव में बहता है और तब सुधा के ख्याल को भी वह झटकने लगता है. समय की आंधी से उठे दोष के रेतीले टीले मनुष्य के व्यक्तित्व को इतना जकड़ लेते हैं कि वह उसके सामने घुटने टेक देता है. जैसा चंदर के साथ हुआ वह साधारण आदमी के लिए स्वाभाविक है. इसलिए चंदर सुधा का निर्माता नहीं था. सुधा का स्वभाव उसकी अपनी प्रकृति की देन थी. उसकी पवित्रता में दिखावा नहीं था. लेकिन चंदर समाज,लोग, मजबूरी, प्रतिष्ठा, स्वाभिमान जैसे शब्दों की परिभाषाओं से बंधा था. दरअसल चंदर सुधा द्वारा निर्मित था. सुधा के कारण वह दृढ़ था, इस अहम के साथ कि वह सुधा को आदर्शों के अनुसार ढाल रहा है. सुधा और चंदर में आत्मा और शरीर जैसा संबंध था और सुधा का ब्याह हो जाता है, तब यह आत्मा और शरीर एक दूसरे से अलग हो कर अस्तित्वहीन से हो जाते हैं. उपन्यास के आखिर में चंदर और सुधा की भेंट होती है. चंदर उसके जीवन के आखिरी दिन उसे देख पाता है. अंतत: सुधा अपने अल्हड़पन और समझदारी को समेटे चंदर की गोद में सिर रख कर हमेशा के लिए विदा हो जाती है. उपन्यास के इन पन्नों को पढ़ने के बाद दो दिनों तक मैं असहज रहा, जैसे कोई अपना हमेशा के लिए छोड़ कर चला गया हो, जैसे सालों लंबे साथ के बाद कोई पूरी उम्र नहीं मिलेगा. मैं लड़की की शादी में विदाई के बाद घर में फैले सूनेपन से भर उठा था. आंखें सावन-भादो हो कर सूज गयीं और देह तपने लगी. पूरे दिन कुछ खा न सका, शरबत पी, तो सुधा की शरबत याद आयी, चाय पी, तो चंदन की शरारत याद आयी.....


मेरे शब्द कहीं खो गये थे, मैं इसे पढ़ कर रोता था और बंद कर देने पर आकुल होने लगता था. हार कर मैंने डायरी खोल ली और बस इतना लिख पाया-
 आज मैं सारी रात न सोया,
  होठों को आंसू से धोया,
 सिसकियों ने समझाना चाहा,
 फिर भी दिल का दर्द ना खोया,
आज मैं सारी रात न सोया