Monday, January 10, 2011

फिर आ जाना...(संस्मरण का अंतिम हिस्सा)

  (संस्मरण का दूसरा हिस्सा मतलब अंतिम किस्त जारी कर रहा हूं...'फिर आ जाना' पापा की एक कहानी का नाम है....इस संस्मरण के मार्फत मैं भी बस यही कहना चाहता हूं.. पापा बस एक बार....फिर आ जाइए ना.. )

मैं बता रहा था कि पापा सुबह बागवानी करते थे..छत पर खुरपी रखी रहती थी एक...उससे मिट्टी को कोड़ते थे..गोबर का खाद बनाया था उन्होंने....और हां गाय भी थी हमारी एक..काली गाय...प्योर ब्लैक...पापा कहते थे...लछमिनिया गाय हीय...वो हमारे परिवार का एक अहम हिस्सा थी...अब सोच कर हंसी आती है..पापा ने अपने ऑफिस से सटे हुए कमरे की फर्श को तुड़वा दिया था...और वहां कोने में नाद लगवा दिया...रात में ही बगल वाले कमरे के टूटे फर्श पर ईंटे बिछवा दी ताकि गाय का खुर ना फिसले। ऑफिस और कमरे के बीच की दीवार को भी तुड़वा दिया पापा ने...यहां तक कि दो सीढ़ियां भी जो मेन गेट पर थीं...और पापा कचहरी से जब आते थे अमूमन चार बजे तो स्कूटर के पीछे करीब 20 किलो हरियरी लाते थे..जापानी फार्म से..और आते के साथ पहला काम गाय का सानी-पानी....उसके बाद फिर शाम की चाय लेते थे..हम सब एक साथ बैठते थे...मैं दरअसल बैठता नहीं था...मैं पापा में सट जाता था...सबसे छोटा था तीन भाई बहनों में...सबसे बड़े भैया फिर दीदी फिर मैं..मैं पापा के सीने पर पैर रखकर सट जाता था...और कभी अगर मुझे लगता कि बिना पूछे आज सटने पर डांट भी पड़ सकती है तो फिर पूछ लेता था...पापाजी सटने का मन कर रहा है...जिंदगी के बेहतरीन पल थे...पापा जिस कप में चाय पीते थे उसमें अंतिम में थोड़ी चाय छोड़ देते थे...और अंतिम दो घूंट के लिए तो मारामारी थी..कभी मैं पी जाता तो कभी दीदी...हंसी आती है सोच कर एक दफे पापा ने चाय पीने के बाद अंतिम में तंबाकू का धूल झाड़ दिया था प्याले में..और दीदी पी गई गलती से उसे...बस फिर उस दिन लड़ाई का मजबूत सिपहसिलार मैं खुद को महसूस कर रहा था...पापा के व्यक्तित्व को समझना उस उम्र में शायद

मुमकिन नहीं था मेरे लिए लेकिन उनके साथ बीते पलों ने बाद के दौर में उनके व्यक्तित्व को समझने में बहुत मदद की....करीब तीन सालों तक मुझे याद है हमारे घर एक बूढ़ी औरत आया करती थी...अपने रिश्तेदारों से तंग होकर वो मदद के लिए आई थी पापा के साथ...देखने में लगता था नब्बे डिग्री के कोण पर झुकी हुई है....कभी वेश्यावृति के धंधे में उसने जिंदगी गुजारी थी और उम्र के आखिरी दौर में उसके आगे पीछे कोई नहीं था..कुछ रिश्तेदार थे जो उसे तंग करते रहते थे..जब वो आयी थी उस दिन से लेकर पापा की मौत तक उसे किरासिन, अनाज, कपड़ा लत्ता पापा दिया करते थे...कभी-कभार उसकी वजह से घर में तनाव भी हो जाता था...पापा की नजर में बढ़ती उसकी अहमियत को हम पचा नहीं पा रहे थे..हमें लगता था हमारे पापा...मम्मी को लगता था मेरे पति....क्योंकि हम सभी में इतनी समझ नहीं थी कि उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता को महसूस कर सकें..उनके नजरिये को समझ सकें...एक बार उस बूढ़ी औरत की तबीयत बेहद खराब हुई थी...मम्मी मुझे लेकर मायके गई थी, भैया थे पापा के साथ और ठीक से याद नहीं शायद दीदी भी घर पर ही थी...लेकिन ये याद है कि जब हम घर लौटे थे उस बूढ़ी औरत की मरणासन्न स्थिति थी..और पापा हमारी आवाज सुनकर भी बाहर नहीं निकले थे...उसे मेरे ही बेड पर लिटाया था और तौलिये से पापा उसके मुंह से लगातार गिर रहे लार को पोछ रहे थे...मैंने आते ही सुना था भैया से बोलते हुए जल्दी जाकर डॉक्टर विकास को बुला लाओ...मुझे उस दिन बड़ी घिन्न लग रही थी..लग रहा था मेरे ही बेड पर पापा ने लिटा दिया है उसे...
फिर सिरप पिलाते, दवाई खिलाते...बाद में पता चला था कि बूढ़ी औरत को कैंसर हो गया था..फर्स्ट स्टेज का...लेकिन वो ठीक हुई...डॉक्टर ने कहा...एक दो साल खींच देगी...पापा बहुत इमोशनल इंसान थे..लेकिन बेहद जिंदादिल..जहां पहुंचते ठहाके लग जाते थे...बूढ़ी औरत जब ठीक हो गई थी, कुछ लोग बैठे थे...पापा के मुंह से निकला...का बूढ़ी..जान त सुखा देले रहू...सबके चेहरों पर मुस्कान बिखरी थी...एक टीम वर्क के तहत हमने बचाया जो था बूढ़ी को...खैर, मुझे अफसोस नहीं है कि मेरे मन में उस वक्त थोड़ा गुस्सा भी आया था और घृणा भी..

पापा के मुंह से कुछ बातें अक्सर निकलती थीं..मेरे जेहन में बिल्कुल तरोताजा हैं वो ठहाके...उनकी बातें..लगता है सिर्फ सोच नहीं रहा मैं, पापा ही बोल रहे हैं आज भी...हूदा के बेटा बेहूदा....मुझे बोलते थे पापा जब सारे लोग मुझे डांटने लगते थे..केस खुलता था मेरे खिलाफ..सारी सुनवाई के बाद पापा बोलते थे..सब केहू मिलके हमार लइकवा के तंग कइले बा....अब एकर का गलती बा हूदा के बेटा बेहूदा जौन ह...और हां कभी कभार तो मैं भांप नहीं पाता था कि पापा गुस्से में हैं या फिर खिंचाई कर रहे हैं...कभी तेज आवाज आती उनकी...छोटूआ...बगल के कमरे में अगर मैं होता था तो पन्द्रह मिनट लग जाते थे डर के मारे पापा के सामने जाने में...एक कदम भारी हो जाता था..उस बीच तीन-चार दफे पापा की आवाज आती थी और साथ में धमकी भी..आईं का हम...बस यही डर रहता था कि पापा के आने से बढ़िया मैं ही हाजिर हो जाउं...पहुंचने पर शिकायतों का पिटारा तो खुलता ही..झूठमूठ का डराने के लिए..डर के मारे सिर नीचे रहता था..नजरें फर्श की तरफ...उसी में पापा की आवाज आती...जाये दे बेटा ई लोग के बूझात नइखे लाजे लागित त लंगटे पैदा भइल रहित बेटा हमार...फिर एक जोरदार ठहाका...फिर मैं पापा को बोलता था हंसने और रोने के मिलेजुले भाव के साथ..।आप भी गंदे हैं...मैं आप पर भी केस कर दूंगा...सबको धमकी देता था मैं केस कर दूंगा...पापा वकील थे शायद इसीलिए...किसी पार्टी फंक्शन में पापा सबको खाने के लिए पूछते थे और बच्चियों को बोलते थे..ना खइलू त मुड़िये काट देम.....। पापा खुशमिजाज थे...
स्पार्ट्कस नाटक के दौरान उजली दाढ़ी और बाल में रामेश्वर उपाध्याय
...तमाम तनावों के बावजूद...तनाव हर पल जिंदगी की कीमत पर होती थी लेकिन उनके ठहाकों में जिंदगी का फलसफा होता था शायद....और हां...किसी फिल्मी डॉयलॉग को सुन कर या फिर कुछ अटपटा सा होते देखकर बोलते थे..वाह बेटा, जन्मल होइब त छिपा बाजल होई....। पापा को लिखते देखने का मौका कभी कभार मिला है लेकिन बहुत कम
..कई बार उनसे लिखने का अनुरोध जब कुछ खास लोग करते थे तो वे लिखते। आरा से निकलने वाले अखबार भोजपत्र के लिए उन्होंने अपने कॉलम को दुबारा लिखना शुरू किया था--फिर बैतलवा उसी डाल पर....। फिर बैतलवा उसी डाल पर दरअसल भोजपुर न्यूज का कॉलम था जो पापा निकालते थे और उसके संपादक थे...प्रेस में मैटर टाइप होता था वो मुझे याद है...मैं भी पहुंच जाता था हमेशा...अपने बियाह का कार्ड छपा कि नहीं ये पूछने के लिए....और रोज पापा और प्रेस स्टॉफ मुझे कोई दूसरा कार्ड दिखाकर भेज देते थे ये बोलकर कि बस नइकी(लड़की) के नाम छपल बाकी बा.....। अखबार छपने की धुंधली लेकिन पुख्ता तस्वीरें मुझे याद आती हैं...पापा का प्रूफ चेक करना...प्रेस स्टॉफ के द्वारा मैटर का बड़ी प्रिंटिंग मशीन में डालना और पन्नों को सेकंडों के अंतर पर हाथ डालकर निकालना...प्रेस में दो मशीनें थीं...एक बड़ी प्रिंटिंग मशीन और दूसरी छोटी....बिजली का बुरा हाल था आरा में....और रात-रात भर प्रेस में काम चलता रहता था...कई बार मैंने देखा है बिजली कट जाने पर पापा को छोटी मशीन को हाथ से चलाते हुए....उनका चेहरा लाल पड़ जाता था...बाहें चढ़ जाती थीं...कई बार हम सब पेपर को मोड़ते थे और बंडल बनाते थे.....रात भर मैं सोने लगता था बीच में और फिर जगता था अचानक कि कहीं दीदी मुझसे ज्यादा अखबार ना मोड़ दे....पापा बोलते थे अब मुझे चिंता नहीं है मेरे हाथ तैयार हो गए हैं....अब लगता है काश पापा सचमुच देख पाते और हम उन्हें यकीन दिला पाते कि उनके हाथ आज सही मायनों में तैयार हो गए....बेबाकी के साथ चीजों को लिखने के लिए जाने जाते थे रामेश्वर उपाध्याय...ये बात मैंने सुन रखी थी...सुना था उनके साहित्यिक और सियासी मित्रों से कि बहुत अच्छे वक्ता थे...बेबाक बोलते थे और आग लिखते थे...भोजपुर न्यूज पर कई मुकदमें भी हो गए थे इसी बेबाकी की वजह से....और बाद में खराब आर्थिक हालात के बीच पापा को वकालत भी इसी लिए शुरू करनी पड़ी थी क्योंकि मुकदमें ज्यादा थे अपने ऊपर और उन्हें लड़ने के लिए पैसे नहीं थे.....फिर बैतलवा उसी डाल पर उनकी बेबाकी का ही एक नमूना था...


अमृत प्रिंटिंग प्रेस का उद्घाटन...भोजपुर न्यूज छपने की शुरूआत
 पापा की हत्या के बाद मुझे उनके साहित्यिक रचनाओं, उनके तेवर, पत्रकारिता का दौर, जेपी आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी इन सबकी जानकारी मिल सकी...मैं इन बातों को जानने के लिए खूब भागा...उन कुछ सालों के बाद जिनकी तमाम रातें छत पर आसमान तकते निकल गईं..चरम आक्रोश और दिशाहीनता के साथ....मैं पापा के कई मित्रों से मिला...उनकी रचनाओं का संकलन किया..अखबार और पत्रिकाओं में छपे उनके लेखों को संजोया....और तब जाकर मुझे पता चला है कि मैं रामेश्वर उपाध्याय के साथ रहता आया था और मुझे खबर भी नहीं....पापा के बारे में जो बातें सुनी सुनायीं थी उन्हें मैं महसूस कर सका जब उन्हें पढ़ने का मौका मिला.... जेपी मूवमेंट के दौरान लिखा गया पापा का उपन्यास नागतंत्र के बीच पढ़ा...इसकी भूमिका में लिखा गया है कि '13 सितंबर 1978 को आरा जेल-गेट पर मुझसे मिलने

गोपाली चौक पर अनशन की तस्वीर
कमलेश्वर, अमरकांत, अजित पुष्कल, मधुकर सिंह और पचास से ऊपर लेखक मित्र आए थे....और उन्होंने मेरे संबंध में यह धारणा बना ली थी कि मैं जेपी की संपूर्ण क्रांति का आदमी होकर जेल में हूं...लेकिन मैं ऐलानिया तौर पर कहना चाहता हूं कि हमारा संबंध वामपंथी ताकतों से था और हम अपनी सही समझदारी के साथ आंदोलन में थे। हां, हमारा दुर्भाग्य यह जरूर रहा कि वामपंथी ताकतें तत्काल कुछ कर नहीं सकीं और नेतृत्व उनके हाथ से निकल जाने के कारण हमें भी संपूर्ण क्रांति का आदमी करार दिया गया।....' ये उस युवा लेखक की सोच और तेवर की तस्वीर को साफ करता है..
पांचवीं तक की पढ़ाई आरा से सटे अपने गांव बभनगांवा में पूरी करने के बाद पापा शहर पहुंचे थे...बाबा जैन मंदिर में पुजारी थे....उस वक्त जो भावनाएं पापा में घर करती रहीं उसी ने उनमें लड़ने का जुनून पैदा किया होगा जैसा कि उनकी किताबों से समझ में आता है...बेबाकी के साथ उन्हें बोलने की आदत वहीं से पड़ी शायद....शोषण के खिलाफ लड़ाई लड़ने की मुहिम और उससे ज्यादा उन लोगों को बेहतर बनाने की कवायद जिनकी उम्र सलामी दागते निकल गई...दो जून के रोटी की जुगाड़ में....


नीतीश कुमार और रामेश्वर उपाध्याय....74 आंदोलन के दौरान की तस्वीर

पापा आंदोलन में कूद पड़े थे...1974 का छात्र आंदोलन जिसे बाद में जेपी का नेतृत्व मिला...बाबा बहुत नाराज थे..उन्हें उम्मीद थी कि उनका बेटा जैन मंदिर में पुजारी के विरासत को सम्हाल लेगा...लेकिन ऐसा हुआ नहीं...आंदोलन के दौरान पापा मीसा के तहत जेल में रहे करीब ढाई साल...और इसी दौरान उन्होंने अपनी कहानिय़ों, उपन्यास और नाटकों से शोषण विहीन समाज की स्थापना की दिशा में जमीन तैयार करने में एक ईमानदार लेखक की भूमिका को निभाया....हालांकि इसे लेकर नाराजगी का दंश भी झेलना पड़ा...सिर्फ समाज में नहीं बल्कि घर में भी...परिवारिक स्थिति, परिवार के लोगों और रिश्तेदारों की मानसिकता, कुल मिलाकर कहें तो चीजों को सीधे तौर बिना किसी लाग लपेट के लिख देने पर नाराजगी भी थी कई लोगों को...खुद मेरे बाबा को...राजनीतिज्ञ के तौर पर पापा की शुरूआत हुई थी और लेखक के तौर पर परत-दर-परत कुव्यवस्था को उघेरना वो चाहे राजनीति से प्रेरित हो या फिर समाजिक कुव्यवस्था से...मेरी समझ में बदलाव की आस में ही उन्होंने आंदोलन में हिस्सेदारी की और

तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के साथ रामेश्वर उपाध्याय (गले में हरा शॉल)

बदलाव की आस ने ही उनकी कलम को ताकत दी....कई दफे बाबा ने घर से निकलने को तक कह डाला...और रात-बिरात पापा ने बच्चों के साथ समान लेकर घर छोड़ा भी....समाजिक लड़ाई को प्राथमिकता दी तो परिवार को अपनी जिम्मेदारी समझा...इसी के तहत पापा ने मोटर पार्ट्स का दुकान खोला....कोयला तक बेचने का काम हुआ और जन-वितरण प्रणाली की दुकान भी खोली...लेकिन ये कवायद सरवाइवल की उसी कहानी का हिस्सा था जो पापा हमें गुलाब की कली और कचरा चुनते बच्चे को दिखाकर समझाना चाहते थे..जो लड़ाई उन्होंने खुद लड़ी थी..पापा का सलेक्शन हुआ था लेक्चररशिप के लिए लेकिन न्यूजट्रैक में

मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा के खिलाफ छपी एक रिपोर्ट की कीमत चुकानी पड़ी और पैनल रद्द हो गया....लेकिन इन बातों को पापा ने कभी तरजीह नहीं दी...दरअसल उन्हें सरकारी नौकरी करना कभी मंजूर ही नहीं था...इसलिए बाद के दिनों में जब इंटरव्यू कॉल आया तो पापा ने ये नौकरी नहीं करने का निर्णय लिया....अंतिम दिनों में उनमें इस बात की कसक को हम महसूस करते थे कि समाज में बेहतरी की लड़ाई में उनका दखल परिवारिक झमेलों में फंस कर सिमटता गया था...



मां और पापा...छत पर बैठ कर सुकून के पल

पापा गर्मी की सुबह और शाम को छत पर जरूर बिताते थे...आसमान की लालिमा उन्हें पसंद थी...बेहद भावुक क्षण होते थे उनके लिए...जिस वक्त उनकी कसक उनकी बातों से ज्यादा डबडबाई आंखों में महसूस किया जा सकता था....उनकी जिंदगी के आखिरी दिनों में मैंने उन्हें कुछ हद तक समझा था..ऊपरवाले का शुक्रगुजार हूं कि कम दिन ही सही लेकिन कुछ वक्त रामेश्वर उपाध्याय के साथ गुजरा...। बहुत दिन पापा के साथ रहा मैं..लेकिन आखिरी दिनों में रामेश्वर उपाध्याय के साथ को भी कुछ हद तो जरूर महसूस किया मैंने....। उन दिनों उन्होंने फिर से कलम उठा ली थी और एक उपन्यास लिखना शुरू कर दिया था....कचहरी पर किताब लिखने की तैयारी में थे वे...शाम को जब हम छत पर बैठते थे तो भुट्टा खाया करते थे...रोज भैया भुट्टा लाते थे और शाम में कोयले पर उसे पकाकर खाया करते थे..मैं गांव से मिर्च का एक पौधा लाया था...उस पौधे की मिर्च को भी खाते थे हम...और उसी दौरान अक्सर पापा बोलते थे समय कम है काम बहुत ज्यादा करना है....ये समय कम है का एहसास उनकी छोटी उम्र से ही समाया हुआ था उनमें...इसीलिए ज्यादा सोते नहीं थे पापा...रात में अक्सर 1-2 बज जाता था पढ़ाई लिखाई करते हुए....और सुबह सुबह 4 बजे उठकर मार्निंग वॉक...सात बजे से ही ऑफिस में लोग बैठने लगते थे मुलाकात के लिए...फिर दिन भर की भागदौड़..आखिरी दिनों में उन्होंने गाय रखी थी तो दूध दूहते खुद थे...दरअसल एक यादव को दूध दूहने के लिए बुलाया गया था लेकिन उसने किसी दिन गाय को पीट दिया था...बस उसी दिन पापा ने उसे हटा दिया...छोटे टेबल को आधा काट दिया और फिर बैठकर बड़े आराम से दूध दूहते..आश्चर्य होता कि पापा एक ही हाथ से दूध निकालते बिना गाय का पैर छाने...लेकिन गाय बड़े आराम से खाते रहती..
इमरजेंसी के दौरान
.शूर के पक्के थे बिल्कुल...जब मकान बन रहा था हमारा तो रोज राजमिस्त्री कमरे का कोन बनाते वक्त काम बंद करता था..सुबह आकर उसमें खासा समय लगाता था...एक दिन पूछने पर पापा से उसने कहा था कि बाबा बहुत कठिन होला कोन बनावल एही से इत्मीनान से करीलां...और ये भी कि सारा काम सभी नहीं कर पाते...बस फिर उसी रात में पापा ने हाथ लगा दिया प्लास्टर करने में...पापा और भैया ने मिलकर रात भर में एक तरफ की आधी दीवार को प्लास्टर कर दिया था..आज भी देखने पर कोई नहीं कह सकता कि ये राजमिस्त्री का किया हुआ काम नहीं है...पापा कहते थे जरूरत पड़े तो कलम उठा लो और जरूरत पड़े तो कुदाल उठाने में हिचक नहीं हो...शायद इसी सीख ने हमें मजबूत किया उनके बाद भी...19 अक्टूबर 1997 हमारा जीवन थम गया...हम जिंदा लाश बन गए...लेकिन पापा की बातों ने उनकी रचनाओं ने, उनकी आवाज के एहसास ने..हमें फिर से जगाया...ये एहसास कराया कि जिंदगी संघर्ष का नाम है उस कचरा चुनने वाले लड़के की तरह जो हर रोज संघर्ष की एक नई लड़ाई लड़ता है...
पापा की मौत के बाद भी हम जिंदा हैं उन ठहाकों को महसूस कर जो हमेशा जिंदादिली से भरी जिंदगी की तरफ ले जाती हैं...इस एहसास के साथ कि..

सूरज फिर निकलेगा......

बादल बरपाने लगे हैं कहर,

वर्षा की भींगों से अब तो भींग रहा सारा ये शहर

लेकिन आखिर अंत में वो फिर निकलेगा

बादल में तो दरार पड़ेगी, सूरज टुकड़ों में न बंटेगा

अस्त हुआ है समय से पहले, समय को पाकर फिर उभरेगा

धरती को जलमग्न बनाने से पहले वो फिर उभरेगा

अंतिम जीत उसी की होगी, आने की वो बाट तकेगा
धरती को जलमग्न बनाने के पहले,

वो फिर निकलेगा......
(जनपथ में प्रकाशित)