Friday, May 11, 2012

अचानक एक ब्लॉग पढ़ने लगा ''बना रहे बनारस''...बनारस गया था कुछ दिन पहले लिहाजा ब्लॉग का नाम देखकर ठहर गया...इस पर निलय उपाध्याय का इंटरव्यू छपा था...निलय उपाध्याय को मैं निजी तौर पर जानता हूं...इंटरव्यू बेबाक है..अच्छा लगा...इसलिए बहुत दिनों बाद अपने ब्लॉग पर साभार जारी कर रहा हूं...

मुझे याद रखना मेरे गांव मैं गांव से जा रहा हूँ : निलय उपाध्याय

मुंबई के सुदूर उपनगर में आने वाला नायगांव थोडा-बहुत चर्चा में इसलिए रहता है है कि वहां टीवी धारावाहिकों के सेट लगे हुए हैं। स्टेशन के चारों ओर पेड हैं और झाडियों में झींगुर भरी दुपहरी भी आराम नहीं करते। लेखक निलय उपाध्याय कहते हैं कि ये नमक के ढुहें देख रहे हैं, इन पर रात की चांदनी जब गिरती है तो वह सौंदर्य कवि की कल्पना से परे होता है। सरकारी नौकरी से कभी न किए गए अपराध के लिए जेल तक का सफर एक लेखक के अंदर अभूतपूर्व बदलाव करने के लिए पर्याप्त है। परिवार, महानगर, मनोरंजन जगत की विकृतियों और साहित्य की शोशेबाजी पर उनसे दुर्गेश सिंह की बातचीतः

लेख का शीर्षक उन्हीं की एक कविता मैं गांव से जा रहा हूं से हैं, जहां निलय लिखते हैं कि खेत चुप हैं / फसलें खामोश धरती से आसमान तक तना है मौन / मौन के भीतर हांक लगा रहे हैं मेरे पुरखें/ मेरे पितर/उन्हें मिल गई है मेरे पराजय की खबर/ मुझे याद रखना मेरे गांव/ मैं गांव से जा रहा हूं।। पचास के हो चुके निलय कहते हैं कि अगली जनवरी में उनके पचास पूरे हो रहे हैं तब शायद वे इस शहर को छोड दें। एक ऐसा शहर जिसने उन्हें पैसे दिए, शोहरत दी और बच्चों को बडा करने में सहूलियत दी, उस शहर को । एक ऐसा शहर जिसने सागर सरहदी के साथ जीवन वाले ठहाकों, कुंदन शाह के ह्यूमर और जानु बरूआ की संवेदनशीलता की सोहबत दी। पुराने दोस्त उदय प्रकाश की मोहनदास भी निलय ने यहीं से लिखी। हां, टीवी की दुनिया से जरूर उनका मन खिन्न है और वे कहते हैं कि एक सच्चा लेखक टीवी के लिए तभी लिख सकता है जब उसे अपनी आत्मा के साथ बलात्कार होने देने का मन हो। हाल ही में मैंने हर हर महादेव लिखना छोडा है क्योंकि आप जो लिखकर देते हो उसके अलावा बहुत कुछ करते हैं टीवी में अंदर बैठे लोग। वे लोग जिन्होंने अपने जीवन में धारावाहिक का एक एपिसोड नहीं लिखा हो, वो आपके बताते हैं कि आपको कैसे लिखना है और पब्लिक क्या देखना चाहती है। टीवी को एक व्यापक पटल पर रखकर डिबेट की दरकार है। मुंबई जैसे महानगर में लेखकों के लिए टीवी जीविका का बडा माध्यम है लेकिन दुख की बात है कि टीवी में लेखन हो ही नहीं रहा है। मैंने कई ऐसे धारावाहिक सिर्फ यह कहकर छोडे हैं कि मेरे अंदर का लेखक मर रहा है।

नौकरी, अपहरण और जेल

मुंबई आने का कभी कोई इरादा नहीं था। मैं आरा में बहुत खुश था। सरकारी अस्पताल में फार्मासिस्ट के पद पर था। बीच-बीच में छुट्टी वगैरह लेकर लेखन के लिए नेपाल चले जाया करता था लिखने के लिए। साल 2003 की बात है लंबी छुट्टी से आने के बाद मैंने अपनी छुट्टियों की अर्जी पर दस्तखत चाहें तो अस्पताल के चीफ डाॅक्टर सुरेंद्र प्रसाद ने कहा कि दस फीसदी मुझे दे दीजिएगा और छुट्टियों को इनकैश करा लीजिएगा। मैंने मना किया तो मेरा वेतन रोक दिया गया। मैं धरने पर बैठा और सुरेंद्र बाबू की बहुत किरकिरी हुई। उन्होंने मुझे अपने झूठे अपहरण के आरोप में फंसा दिया। एक ऐसा अपराध जो मैंने कभी किया ही नहीं उसके लिए मुझे इक्कीस दिन तक जेल में रहना पडा। जेल में मैं एक नई दुनिया से रू-ब-रू हुआ। उसके पहले मैं साहित्य में बहुत सक्रिय था। जेल में मेेरे जाते ही पढे-लिखे साहित्यकार भी बैकवर्ड- फॉरवर्ड की बात करने लगे। मेरे जेल से आने के बाद मुझसे प्रतिक्रिया के स्वरूप सुरेंद्र प्रसाद पर कार्रवाई करने की उम्मीद भी की गई। लेकिन, मेरे लिए मुश्किल दौर था। नौकरी जाती रही और चार बच्चों समेत छह लोगों का परिवार पालना था। जेल में मेरे साक्षात्कार के लिए ईटीवी का एक पत्रकार आया उसने मुझे चालीस हजार की नौकरी ईटीवी में ऑफर की। मैं भारी मन से आरा छोड रहा था। बिहार आज भी मेरे रगों में बसता है। हैदराबाद जाने से पहले मैं दिल्ली गया। उदय प्रकाश से मिला। उन्होंने कहा तुम मुंबई चले जाओ, उस शहर को तुम्हारी जैसी संवेदनशीलता की बहुत जरूरत है। पता नहीं क्या जादू था उदय की बात में और मैं मुंबई चला आया।

मुंबई के मायने उर्फ कुंदन शाह, सागर सरहदी और जानु बरूआ


मैं अपने गांव के ही एक दोस्त के यहां आया। सागर सरहदी चैसर बना रहे थे। उन तक पहुंचा और उन्होंने कहा कि तू चैसर लिखने ही इस शहर आया है। सागर इससे पहले अपनी फिल्में खुद लिखते थे। फिर मैं अंजन श्रीवास्तव के पास गया, उन्होंने कुंदन शाह की एक कहानी तीन साल से अटकी है। तुम उनसे मिलकर देखो। मैं कुंदन शाह से मिला। उन्होंने कानपुर के उस मामले के बारे में बताया जिसमें तीन बहनें एक साथ आत्महत्या करती है। फिल्म का नाम था थ्री सिस्टर्स। जिसमें मरने से तीन घंटे पहले तक उन तीन बहनों की मनोदशा का बयान किया गया है। कुंदन शाह की टीम में और भी राइटर्स थे। एक दिन कुंदन जी से मैंने कहा कि एक बात कहूं अगर आप सुनना चाहें तो। उन्होंने कहा- हां, क्यों नहीं। मैंने फेलो राइटर्स की कारस्तानी बताई और दोपहर तक सारे राइटर्स को उन्होंने भगा दिया। मेरे लिए यह प्रतीक था कि जीवन में की गई कोई भी चालाकी अंत में मूर्खता साबित होती है। दुनिया का कोई ऐसा राज न होगा जिस पर से देर सबेर पर्दा नहीं उठेगा। उसके बाद मैंने जानु बरूआ की फिल्म बटरफलाई भी लिखी। इन तीनों निर्देशकों के लिए काम करने पर मुझे जरूरत से अधिक पैसे मिले। जितने मैंने मांगे नहीं उससे अधिक पैसे मिले। कुछ दिनों तक और हाथ-पैर मारे लेकिन फिल्मों में बात नहीं बनी तो टीवी में आना पडा। टीवी में काम करने को लेकर इरफान खान की कही गई एक बात हमेशा याद आती है कि आप कितने प्रतिभावान है, यह मायने नहीं रखता। जिस आदमी से आप मिलने जा रहे हैं वह कितना प्रतिभावान है। अगर वह आपका बीस फीसदी समझता है तो उसे सिर्फ उतना ही दीजिए। सौ फीसदी करने के चक्कर में आप काम से हाथ धो बैठेंगे।

महानगर-डिप्रेशन-जिबह बेला

मुंबई में मैंने अपने साहित्यिक लेखन पर बिलकुल भी असर नहीं होने दिया। दो उपन्यास वैतरणी और पहाड तैयार हैं, एक कविता संग्रह जिबह बेला और परसाई की कहानियों पर पटकथाएं भी लिख रखी हैं। जब मन होगा छपवाने का तो प्रकाशित करवाने की सोचूंगा। अभी नहीं है। फिल्म और टीवी से जब-जब निराश हुआ साहित्यिक लेखन तब-तब धारदार होता गया। हालांकि, मैं मुंबई को साहित्य का शहर नहीं मानता। यहां गोष्ठियां भी उदे्दश्यहीन और धन उगाहने हेतु होती हैं। मैं साहित्य का हिस्सा तो रहा लेकिन साहित्यकारों का हिस्सा नहीं रहा। मैं खुश भी हूं, मेरे अंदर एक छोटी सी दुनिया है जो लोग उसमें फिट नहीं बैठते हैं, मैं उन्हें वहां की नागरिकता नहीं देता। बहुत सारे लोग साहित्यिक बिरादरी में ऐसे हैं। जब से आईएएस अधिकारियों के हाथों में साहित्य की कमान गई है मीडियाॅकर लोग साहित्य में हावी होते जा रहे है। ऐसे लोग अपने पूरे परिवार से साहित्य लिखवाना चाह रहे है। इन्हीं लोगों की वजह से पत्रिकाएं समाप्त हो गई है। राजेंद्र यादव हंस के रूप में विचारहीन संकलन निकाल रहे हैं और रविंद्र कालिया नया ज्ञानोदय के मार्फत अपना कुनबा संभाल रहे हैं।


(साभार: बना रहे बनारस)