बुनी हुई बातों में
साँसें नहीं होतीं।
ठहाके,सिसकियाँ
उत्साह,गुदगुदी
दुःख,पीड़ा
आस,उम्मीद
थकान,आवेग
सबके बावजूद
मुर्दा होती हैं
बुनी हुई बातें।
-अमृत उपाध्याय
(Amrit Upadhyay)
कशमकश कि भरी दुपहरी में भींगता रहूं या बरगद की छांव में जलूं...
बुनी हुई बातों में
साँसें नहीं होतीं।
ठहाके,सिसकियाँ
उत्साह,गुदगुदी
दुःख,पीड़ा
आस,उम्मीद
थकान,आवेग
सबके बावजूद
मुर्दा होती हैं
बुनी हुई बातें।
-अमृत उपाध्याय
(Amrit Upadhyay)
-अमृत उपाध्याय
रात बेचैनी की गिरफ्त में जकड़ी है बहुत
गिनती साँसों की भी बेमेल लग रही है बहुत
खौफ़ हर नब्ज़ पर कब्ज़ा जमा रहा है आज
ख्वाब एक-एक कर अब छोड़ने लगे हैं साथ
ये कैसा दौर है, अब तुमसे मैं क्या-क्या कहूँ
वक़्त को आज़माने की जिद्द बस छोड़ दो अब
वक़्त की साजिशों की परतें खुल रहीं देखो
तुमने इक बात जो यूँ ही कही थी मुझसे कभी
वही इक बात आज अटकी है मेरे सीने में।
सिलसिला बातों का बेमोड़ ही ठहरे न कहीं
मैंने समझाईं तुम्हें अब तलक जितनी बातें
याद करना उन्हें जो तुमने अनसुनी की थीं
मेरी बातों में फ़लसफ़े भले न मिल पायें
वक़्त की कद्र करना सीख लो बस काफी है
वक़्त को आज़माने की जिद्द अब छोड़ ही दो
तुमने इक बात जो यूँ ही कही थी मुझसे कभी
वही इक बात आज अटकी है मेरे सीने में।
ज़्यादा मायूस, नाउम्मीद तुम न हो जाना
बातें झुठलाने की टकराहटें भी होंगी अभी
रौशनी आस की पाके मिल रहा है सुकून
हौसला खौफ़ को झटके से कर रहा बेदम
गहरी साँसों ने थामी है हरेक नब्ज़ की डोर
ख़्वाब जो बच गए हैं साथ नहीं छोड़ेंगे
सफ़र का आफताब तक पहुँचना बाकी है
पर तुमने इक बात जो यूँ ही कही थी मुझसे कभी
वही इक बात आज अटकी है मेरे सीने में।
-अमृत उपाध्याय। (Amrit Upadhyay)
-अमृत उपाध्याय
बचपन से ही,
मैं जब भी कहीं जाता था घर से
माँ से कहता था
'मैं जा रहा हूँ'
जवाब में हर बार कहती थी वो मुझे
' लौटकर आओ'
मैं सोचता था
हर बार मेरे जाने की ख़बर में
'आना' क्यों तलाशती है माँ?
उसे पता तो है
जाने और लौटने का फ़र्क़
कि जाना तय है
अनिश्चितता, लौटने में है।
झेला है माँ ने
जाकर न लौटने का दुख
असह्य पीड़ा
शूल की तरह चुभन से उठता दर्द
कभी न ख़त्म होने वाला
लौटने का इंतज़ार।
वो जानती तो है कि
लौटने को कह देने से
कोई लौट नहीं आता।
फिर यह महज कह देने भर की
रवायत नहीं होगी हरगिज़
कुछ पुख़्ता रहा होगा
इन बातों का फ़लसफ़ा
जैसे-जैसे बचपन छूटता गया
समझ आता गया
माँ की बातों का मतलब,
जाने और लौटने का फ़र्क
लौटता वो है
जिसमें हो जीवटता
जिसे आता हो हालात से लड़ना
जो अंत तक नहीं छोड़ता उम्मीद
जिसमें अंतिम दम तक
हौसला बनाये रखने की हो ताक़त
जो नहीं टेकता घुटने अंतिम सम्भावना तक
जो होशोहवास में नहीं मानता हार
मैं लौट आता हूँ हर बार
क्योंकि जब भी मैं जाता हूँ कहीं
माँ हर बार देती है
लौट आने की तालीम मुझे।
--- अमृत उपाध्याय
(Amrit Upadhyay)
-अमृत उपाध्याय
मैं जब भी उजाले के हिस्से जाता हूँ
रात वापस खींच लाती है
रात महबूब हो जैसे।
आखिरी पहर तक सहलाती है मुझको
खूब बतियाती है मुझसे देर तक
सोने नहीं देती पर लोरी सुनाती है।
चांदनी ओढ़ लहराती है मुझमें,
हवाखोरी कराती है।
रात इतराती है, इठलाती है,
और कहकहाती है।
रात बेलौस-सी,
बेफ़िक्री में जीना सिखाती है।
माज़ी में झाँकती है मेरे
बीते किस्से सुनाती है
बहुत कुछ अनकही और अनसुनी-सी
मुझे अक्सर बताती है।
रात बीते हुए लम्हों को मेरे
बहुत क़रीब लाती है
मैं महसूस कर लेता हूँ उनको
जिन्हें अब मिल नहीं सकता।
मैं दस्तक दे दिया करता हूँ उनको
जिन्हें कुछ कह नहीं सकता।
रात तिलिस्म है, अय्यार है मानो
मैं जब भी उलझा रहता हूँ
वो हरदम जान जाती है
मेरे सीने में हर रेशे की उलझन
खोलती है वो
रात आईना हो जैसे
मुझे, मुझसे मिलाती है।
मैं जब भी उजाले के हिस्से जाता हूँ
रात वापस खींच लाती है।
रात महबूब हो जैसे।
- अमृत उपाध्याय
(Amrit Upadhyay)
-अमृत उपाध्याय
सरसराती तेज़ तूफानी हवाएँ
दहशत उड़ेल रही हैं मुझमें
रात है घनघोर जिसमें
कड़कड़ाती बिजलियों के गरजने से
रगों में ख़ौफ़ के टुकड़े
पसरते जा रहे हैं
मैं इनसे बच के सोना चाहता हूँ
सुनहरे ख़्वाब की आग़ोश में
मुझे बस नींद आ जाए
मैं इनसे बच के सोना चाहता हूँ
कि जैसे माँ की कोख में
घुड़का हुआ
बेफ़िक्र पलटी मारते सोता है बच्चा
मैं इनसे बच के सोना चाहता हूँ
कि जैसे माली की हथेलियों से घिर कर
आँख मूँद अलसाता है एक नन्हा पौधा
मैं इनसे बच के सोना चाहता हूँ जैसे
हज़ारों फीट ऊँचे पर्वतों पर
टूटते चट्टानों से बेफिक्र होकर
गुनगुनी-सी धूप में
सोते हैं परिंदे
मैं इनसे बच के सोना चाहता हूँ
कि जैसे गहरी काली रात में
चुपचाप, बिना देखे दिखाए
फ़लक पर तान कर सोता है चंदा
मैं सोना चाहता हूँ
सुनहरे ख़्वाब की आग़ोश में
मुझे बस नींद आ जाए।।
---अमृत उपाध्याय
(Amrit Upadhyay)
तेरे भीतर
थोड़ा-थोड़ा
मैं बसता था।
आँखों में तेरे
थोड़े आँसू
मेरे थे।
तेरे धड़कन की
थोड़ी साँसें
मेरी थीं।
चेहरे में तेरे
मैं भी थोड़ा दिखता था।
रातों में चांद की
थोड़ी चांदनी
मेरी थी।
तेरे सपनों में
मेरी यादों का
हिस्सा था।
तेरे भीतर का
थोड़ा-सा मैं
टूट गया हूँ।
तुझमें खुद के
बिखरे टुकड़ों को
ढूँढ रहा हूँ।
-- अमृत उपाध्याय
फ़रेब ओढ़ने की हुनर से
तय होंगे
ज़िंदगी के रास्ते
नक़ाब की परत-दर-परत
बढ़ती जाएगी
तज़ुर्बे की शोहरत
आईने के उस पार
दरकती जाएगी
मेरी परछाईं
'मैं' धीरे-धीरे
बन जाएगा
'वह'
एक दिन जब तुम्हारी नज़रें
खोजेंगी मुझे 'उसके' हासिल में
'मैं' नहीं मिलूंगा तुम्हें
कभी भी, कहीं भी।
- अमृत उपाध्याय