Monday, March 15, 2010

समाज चीज़ों को तय करता है मीडिया नहीं

(अनिल चमड़िया के साथ ये बातचीत प्रभात खबर ने 22 जून 2007 को छापी थी, मीडिया के नये स्वरूप और कार्यशैली पर बहस तेज है, ऐसे में प्रासंगिकता के लिहाज से इसे ब्लॉग पर जारी करना उचित लगा)



पत्रकारिता की नयी और पुरानी समझ में क्या अंतर है?

-- हमारे वक्त में किसी को साहस नहीं था कि वह खुद को प्रोफेशनल कह सके. हमारी समाज के प्रति जिम्मेदारियां थीं. अब के पत्रकार सीधे तौर पर इसे कैरियर कहते हैं. मेरे ख्याल से कमिटमेंट और प्रोफेशनल की परिभाषाएं, दृष्टिकोण को दर्शाती हैं. हमलोगों की भूख थी, गहराई में जाकर चीजों को समझने की. अब वह भूख नहीं है. अब के लिए यह नौकरी है. पद या पैसों की प्रोन्नति मिलती रहे, इसकी अहमियत है. बुनियादी तौर पर ये बदलाव तेजी से आये हैं. अच्छी पत्रकारिता के मायने अब वही हैं जो टेलीविजन में दिख रहा है. हमारे समझ में नयी समझ लाने की होड़ थी. नये सोच विकसित करनेवाले पत्रकारों का दबदबा था. अब ज्यादा से ज्यादा ग्लैमर नाम का दबाव है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसका प्रभाव बढ़ा है.

पत्रकारिता के क्षेत्र में तेजी से आया बदलाव कितना सार्थक सिद्ध हुआ?
--बदलाव तो होना ही चाहिए, इसके बगैर समाज जड़ हो जायेगा. लेकिन जब प्रश्न है सार्थकता की तो देखनेवाली बात है कि बदलाव का स्रोत क्या है? यदि समाज बदलाव एक गति से कर रहा है, विमर्श के बाद कर रहा है, तब समाज को उसे स्वीकार कर उसके साथ रहने में दिक्कत पेश नहीं आती, लेकिन बदलाव यदि थोपा जाये तो समाज उसके साथ सहज नहीं हो पाता. घोषित तौर पर यदि हम पहले कहते थे कि मीडिया चौथा स्तंभ है तो बाद के समय में यह सत्ता के चौथे स्तंभ के रूप में दिखने लगा. 1995 से यह न तो सरकार का रहा, न लोकतंत्र का, यह बाजार का मुख्य स्तंभ बन गया. टीवी में समाज के 10 से 15 प्रतिशत लोगों का चेहरा दिखता है. अखबारों में आठ से दस प्रतिशत आबादी का रिफ्लेक्शन दिखता है. कुछ हिस्से के लिए यह हो सकता है. सार्थक मध्य वर्ग के खाने में 8-10 आइटम होते थे तो अब 200 आइटम हैं. हमारे समय में बच्चे कला की ओर रूझान रखते थे. अब ऐसा नहीं है , वे डांस करना चाहते हैं और क्लीपिंग विभिन्न टीवी कार्यक्रमों तक पहुंचाना चाहते हैं. सुविधा संपन्न लोगों के लिए यह सार्थकता हो सकती है लेकिन निम्न वर्ग के उत्पीड़न के लिए औजारों में इससे इजाफा हुआ है. वह और दबाया गया है.

व्यवसायीकरण का पत्रकारिता पर कितना गहरा प्रभाव दिख रहा है?
व्यवसायीकरण कल भी था. कल भी अखबार बिड़ला, डालमिया, गोयनका ही निकालते थे. आज भी रिलायंस, गोयल परिवार, जैन परिवार ही इसे चला रहे हैं. व्यवसायी के हाथ में मीडिया शुरू से ही है. कल भी, आज भी क्योंकि इसके लिए पूंजी की आवश्यकता है, लेकिन कल जो व्यवसायी अखबार निकालता था, वह इतने निर्लज्ज तरीके से बात नहीं कर पाता था जैसे आज कर रहा है. कोई भी व्यवसायी व्यवसाय एक मर्यादा में या समाज द्वारा निर्धारित एक सीमा में तभी तक करता है , जब तक समाज उसे ऐसा करने के लिए कह रहा है. बंधन हो तो व्यवसायी इससे आगे नहीं जायेगा. लेकिन इससे व्यवसायी का गुण खत्म नहीं हो जायेगा. समाज के दबाव में है वह, लेकिन उसकी मूल प्रवृत्ति है- कम समय में ज्यादा से पूंजी अर्जित करना. ऐसे में समाजिक दबाव में ढील पड़ते ही वह हद से आगे बढ़ जायेगा. पिछले 10-15 वर्षों में स्थिति आयी है कि व्यवसायी वर्ग पर समाज का दबाव नहीं रह गया है. या कहें तो समाज को ऐसे विकसित किया गया कि वह छिन्न- भिन्न हो जाये. और मौका देखते ही व्यवसायी हावी हो गया. अब कोई अन्तर नहीं रह गया प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक में. जो अखबार निकाल रहे हैं वे ही चैनल चला रहे हैं, तो अंतर कहां है. व्यवसायीकरण बुरा नहीं है. लेकिन अगर नैतिकता व अनुशासन न हो तो दिक्कत है और तब वह अपने नंगे रूप में खड़ा हो जाता है. आज डॉक्टर दूसरा व्यवसायी है क्योंकि वह समाज की सीमाओं को तोड़ रहा है. यही हाल मीडिया का है.

निजी चैनलों की होड़ में स्तरीयता कितनी बरकरार है?
--स्तरीयता की उम्मीद ही नहीं की जा सकती. तकनीक कभी विकसित हो सकती है, लेकिन तकनीक का इस्तेमाल हर समाज अपने तरीके से करता है. आदिवासी समाज अलग तरीके से उपयोग करेगा तो महिलाएं अलग, ताकि विकास हो. साथ ही पूंजीपति भी इसका इस्तेमाल करेगा. टीवी आया था सरकारी टेलीविजन के रूप में. यानी सरकारी पूंजी लगा अर्थात जनता का पैसा लगा. जाहिर तौर पर सरकार का लक्ष्य पैसे के रूप में मुनाफा कमाने का नहीं था.समाज को जागरूक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विकसित बनाना था. बहस का मुद्दा है कि किस हद तक उद्देश्य पूरा हुआ. निजी चैनल मतलब निजी पूंजी के बल पर तकनीक का इस्तेमाल. निजी चैनल लोकतंत्र की रक्षा या समाज को सांस्कृतिक मजबूती देने के लिए नहीं आये. जिसने पूंजी लगायी उसने उस संस्कृति का विकास करना चाहा जिससे पूंजी का विकास हो. पूंजीपति वर्ग में बहुत सारे लोग हैं, इस बीच का एक व्यक्ति निकला जो संगठन के बीच से स्तर का निर्धारण कर रहा है. बाजार के बहुत तरह के व्यवसायियों का वैचारिक संगठन है जो घोषित नहीं है. यह एक सहज समझौता है . वे जानते हैं कि किस तरह के सीरियल बनाने से किस तरह की साड़ियां, लिपिस्टिक और जूते बिकेंगे. हमलोग समाजिक दृष्टिकोण से स्तरीयता की बात करते हैं, जिसकी उम्मीद अब नहीं की जा सकती.

समाज में मीडिया की वर्तमान भूमिका समाज के लिए कितनी संतोषप्रद है?
--संतोषजनक है, उसके लिए जो यह सोचता है कि जेसिका लाल हत्याकांड में मीडिया ने सजा दिलवायी. पता नहीं कितनी जेसिका लाल हमारे गांवों में शहरों में हैं, जिन्हें कोई नहीं जानता. जो आदमी बिना अपराध के जीवन भर जेल में रहा उसके लिए क्या? लोगों ने देखा, गड्ढे में लड़का गिरा और मीडिया ने उसे कैसे बचाया, लेकिन हकीकत है कि मीडिया के पास उस दिन इससे ज्यादा रोमांचक चित्र नहीं था. फिल्म कंपनी चलाने के पूरे फॉर्मूले थे, उस सीन के पास. क्या नहीं था, बच्चा था, लोगों की भावनाएं थीं, गड्ढा था. यहां कैमरे की दृष्टि से कोई समाजिक प्रतिबद्धता नहीं है. वरना रोज कितने मजदूर दब कर मरते हैं, कौन जान सका? कितने ही बच्चे रोज मरते हैं, लेकिन उन खबरों में कैमरे को स्वाद नहीं मिलती. लोग नहीं जानते कि टीवी चैनलों में कौन-सी भाषा चलती है. एक भाषा चली ' डाऊन मार्केट' की जिसमें अधनंगा बदन, शोषित गरीब , बिना चप्पल के पैर, निर्दोषों की अधनंगी लाशें दिखती हैं. दूसरी भाषा है 'अपमार्केट' की जिसमें ब्यूटीपार्लर से निकलता चमकता चेहरा, ब्रांडेड जूता, परिधान से लदे लोग दिखते हैं. 'डाऊन मार्केट ' की पत्रकारिता करने वालों को और उस पृष्ठभूमि वालों को खदेड़ दिया जाता है अब.

आनेवाले समय में पत्रकारिता का कैसा भविष्य देख रहै हैं?
समाज चीजों को तय करता है. मेरे ख्याल से एक्जिस्टिंग मीडिया पर फिर से समाज का दबाव बनेगा. नंगई जिस तरह से हो रही है, उस पर अंकुश लगेगा. समाज ने आंदोलन पहले भी चलाया है. समाज आज भी आंदोलित है. बहसें हो रही हैं.बहसों को समृद्ध करने की तैयारी हो रही है. मीडिया को समाज को चलाने की इजाजत मिलेगी, मुझे नहीं लगता.

(अनिल चमड़िया से अमृत उपाध्याय की बातचीत)

2 comments:

  1. to aapke ye shauq bhi hain . .good to know .. keep writing :D

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  2. yar professional to ho gaye hai....ab kyn na patrakar bhi ban jai...jo samaj se wastivikata me sarokar rakhta ho...lets bring a thought,a ray...a change which is due.

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