---रामेश्वर उपाध्याय
(कहानी)
उसने अपनी लचीली कमर को थिरकाना शुरू किया। घूंघट के पनहे को आगे बढ़ाकर नज़रों एवं मुखड़े के सहारे ऐसे रोमांचक हाव-भाव प्रदर्शित किये कि बस, लोग देखते रह गए। शामियाने के इर्द-गिर्द जूझती दर्शकों की भीड़ ने ऊँची आवाज़ों में शोर मचाकर उसकी नृत्यकला को दाद दी। भीड़ के बीच से ललकार की भाषा में एक ऊँची आवाज़ आयी ‘.....जिउ जिउरे झरेलवा......’ और लोग इस बात से वाक़िफ़ हो गये कि बाबू जालिम सिंह भी नाच का लुत्फ़ लेने आ जमे थे। यह कैसी बात कि झरेला गोसाईं का नाच हो और जालिम सिंह उपस्थित नहीं रहें। दस-दस के दो कड़कड़िया नोट, जालिम सिंह ने झरेला गोसाईं के ब्लाउज में खोंस दिए। दर्शकगण कुछ देर तक तालियाँ बजाते रहे थे। हरमोनियम मास्टर आवाज़ की रिक्तता को पूरा करने के लिए गाए जा रहा था.....एगो चुम्मा देके जइह हो करेजउ........।
मेरे गाँव में हरेक साल दुर्गा पूजा के अवसर पर झरेला गोसाईं अपनी नाच पार्टी की मुफ़्त सेवा देता है। आस-पास के गाँव के लोग, कई-कई कोस पैदल चलकर, नाच देखने के लिए आते हैं। महुआ गाछ का मैदान दर्शकों की भीड़ से ठसाठस भर जाता है। इस साल लगातार दो दिनों तक कार्यक्रम चलता रहा। लोगों में इनाम देने की होड़-सी मच गई। मण्डली को इस साल अच्छी आमदनी हुई।
झरेला गोसाईं की नाच पार्टी, अब इलाके की सबसे अधिक नाम वाली मण्डली बन गई है। पहले जब भिखारी ठाकुर की नाच पार्टी चलती थी, तब भी झरेला गोसाईं की पार्टी दो नम्बर पर थी। भिखारी ठाकुर की मृत्यु के बाद उनकी पार्टी के सभी नामी-गिरामी कलाकार झरेला की पार्टी में आ गए। चितकावर लाल जैसे विदूषक के झरेला की पार्टी में आ जाने से मण्डली की ख्याति काफी बढ़ गयी।
गौशाला से सटा टोला गोसाईं टोल कहा जाता है। इस टोले में आठ-नौ परिवार गोसाईं लोग रहते हैं। परम्परागत रूप से इनका मुख्य धन्धा रहा है, किसी का इन्तकाल होने पर, श्राद्धकर्म में महापात्र का काम करना। गाँव-जवारों में गोसाईं परिवारों की कमी है। इसलिए, उनका इलाके पर एकाधिकार चलता है। लोग अक्सर मरते ही रहते हैं, अतएव, इनका धन्धा कभी मन्द नहीं पड़ता।
गाँव के लिए गोसाईं टोल की बहुत उपयोगिता रही है। इसके बावजूद यह टोला ज़माने से उपेक्षित सा रहा। बामनटोल की बात कौन कहे, चमरटोल के लोग भी, गोसाईं टोल से घृणा करते हैं। यदि कोई बाहर की यात्रा पर हो और रास्ते में किसी महापातर पर नज़र पड़ जाए, तो वैसा ही अपशकुन समझा जाता है, जैसे बिल्ली का राह काटना। लोग गोसाईं टोल में प्रवेश करने में भी हिचकते हैं। लोगों का मत है कि महापातर अपना धन्धा जमाने के लिए जिसे देख लेते हैं, उसी पर डीठ गड़ाकर, उसके मरने की कामना करने लगते हैं। बड़े-बूढ़ों का कहना है कि कुत्ते की दोस्ती, काटे तो बुरा, चाटे तो भी बुरा। गोसाईं टोला के कारण गाँव के लोग किसी आकस्मिक अनिष्ट के भय से सदा आतंकित रहते हैं। गाँव में किसी की जीनी-मरनी होने पर, तुरन्त उस घटना को गोसाईं टोल से जोड़ दिया जाता है। इस टोल को डायन-भूतिन का डेरा समझा जाता है।
झरेला गोसाईं के बाबू ओझा-गुनी भी हैं और महापातर का काम भी करते हैं। काम सिखाने के ख्याल से वे तीन-चार बार झरेला को अपने साथ श्रार्ध कर्मों में ले गए। ‘दसवाँ’ के दिन उनकी काफी इज़्ज़त होती और मुँह माँगा दान-दक्षिणा मिलता। अधिक से अधिक दक्षिणा लेने के लिए वे रूसा-फुली करते और सन्तुष्ट होने के बाद ही ‘कच्चा दूध’ पीने की रसम पूरा करते।
श्राद्ध कर्म की अन्तिम प्रक्रिया होती है, महापातर द्वारा कच्चा दूध पीना। महापातर के दूध नहीं पीने पर मृतक की आत्मा को शान्ति नहीं मिलती और प्रेतात्मा, भूत बनकर परिवार वालों को दैनिक-भौतिक क्षति पहुँचाती है, ऐसा लोग मानते हैं। इस डर से लोग महापातर को नाराज़ नहीं करते और मुँह मांगा दान देते हैं। लेकिन बाद में महापातर को गालियाँ दी जाती हैं। दरअसल, यह एक ‘टोटरम’ है कि महापातर को गाली देकर भगा देने से यम के पुन: आने की सम्भावना नहीं रह जाती।
परिवार के परम्परागत पेशे में उसे बचपन से ही अभिरूचि नहीं रही। उसी समय से वह गिरधारी बाबा के मठ पर आता जाता था। बाद में, वह गिरधारी बाबा का चेला बन गया। गिरधारी बाबा मस्तमिज़ाज आदमी थे। गिरधारी बाबा के पास गाँव-जवार के साधु-सन्त से लेकर लँगा-लफँगा तक सभी पहुँचते। चोर जब चोरी करने के लिए निकलते तो बाबा का आशीर्वाद लेना नहीं भूलते। कोई शरीफ़ आदमी किसी भले काम की शुरूआत के पहले बाबा का चरण छू लेना ज़रूरी समझता। सुबह से शाम तक मेला लगा रहता, बाबा के पास। चीलम पर गाँजा हमेशा सुलगता रहता। ढोलक और झाल हमेशा टनकते रहते। कभी-कभी नाच-वाच भी होता। एक तरह से गाँव का यही सार्वजनिक स्थान था। उस पर गिरधारी बाबा की विशेष कृपा-दृष्टि रहती थी। बाबा ने स्वयं उसे गाना-बजाना सिखाया। चैती, फगुआ, कीर्तन आदि गाँव के सामूहिक गायन के कार्यक्रमों में वह अच्छा ढोल बजाता था। कुछ दिनों में उसके लोक-गीत गाँव में लोकप्रिय बन गए। गाने-बजाने में उसने अच्छी ख्याति पा ली। थोड़े ही दिनों में वह गाँव के सांस्कृतिक जीवन का केंद्र बिंदु बन गया।
उसका रंग एकदम साफ था और उसके चेहरे पर गँवई रौनक और मासूमियत झलकती थी। आँखें बड़ी-बड़ी और नशीली लगती थीं। उसने अपने बाल बढ़ा लिए थे। चरखाने की लुंगी पहने, कंधे पर लाल रंग का अँगोछा डाले, किसी लोक-गीत का राग अलापते, किसी बधार में वह, मुझे अक्सर मिल जाया करता था।
अचानक सुनने में आया कि गिरधारी बाबा बोरिया-बिस्तर सहित लापता हो गए। बात ज़ोर पकड़ती गई क्योंकि झरेलवा का कोई पता नहीं था। यह बात ज़ोरों से फैली कि गिरधारी बाबा झरेलवा को लेकर भाग गए। गाँव के कुछ धनी-मानी लोग गिरधारी बाबा के इस चाल से बहुत खिन्न थे। बाबू जालिम सिंह गुस्से में आकर थाने में ‘सनहा’ लिखवा दिए। उनके लोगों ने गिरधारी बाबा की कुटिया उजाड़ दी और चीज़ें तहस-नहस कर डालीं। अब बाबा का चरित्र गाँव वालों के सामने नुमाँया हो चुका था। कुछ लोग गिरधारी बाबा के पकड़े जाने पर जमकर पिटाई करने की योजना बना रहे थे।
लेकिन कुछ ही दिनों के बाद, झरेला गोसाईं को एक टुटपूँजिया नाच-पार्टी में नाचते देखकर लोगों को आश्चर्य हुआ था। जालिम सिंह ने उसे बुलवाकर गिरधारी बाबा के बारे में विस्तार से पूछताछ की थी। फिर एक बार लोग भ्रम में पड़ गए थे। गिरधारी बाबा के कट्टर समर्थकों का कहना था कि बाबा अपने योग बल से अन्तर्धान हो गए थे।
इस नाच पार्टी में वह तीन रूपये प्रति रात पर भर्ती हुआ था। मण्डली में पहले से कुल आठ जने थे और इक्कावन रूपये प्रति रात का सट्टा होता था। पहले पहल जब वह भर्ती हुआ था, वह गाँजा का चीलम सुलगाने, डुग्गी सेंकने और हारमोनियन का सन्दूक ढोने का काम करता था। मण्डली में रहकर कुछ ही दिनों में उसने नाचना भी सीख लिया।
झरेला गोसाईं के नाचने से मण्डली की ख्याति बढ़ी थी और मास्टर ने तुरन्त सट्टे की कीमत बढ़ा दी थी। वैसे भी मण्डली में नाचने वालों की कमी थी। केवल दो नर्तक थे। उनमें पहला कोई साठ-पैंसठ वर्ष का बूढ़ा हो चला था। उसके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गईं थीं और गाल धँस गए थे। उसकी आवाज़ काँपती हुई निकलती थी। जब वह सज-धजकर नाचने लगता था तो ठीक अस्सी साल की सधवा बुढ़िया की तरह लगता था। अक्सर युवक दर्शक उसे मंच पर से भगाने का प्रयास करते। हां, बूढ़े-बुजुर्ग लोग उससे ‘निर्गुण’ गाने की फरमाइश ज़रूर करते थे। उसके नृत्य में एक और ख़ासियत थी। वह कोरदार थाली की धार पर और बोतलों की गर्दन पर खड़ा होकर नाच सकता था। नाच के दौरान वह व्यायाम और योग की कई करामातें दिखाता था। दूसरा नर्तक उम्र में अधेड़ लगता था। लेकिन उसके गले की आवाज़ मधुर थी। दर्शक उसे काम-चलाऊ मान लेते थे। झरेला गोसाईं के मंच पर आते ही दर्शक उसके पीछे लट्टू हो जाते थे। इसलिए वह मण्डली की जान बन गया था।
उसके स्वाभिमान को ज़ोरों का धक्का लगा था, जब उसने किसी को ‘लौंडा’ कहते पहले-पहल सुना था। हमारे यहाँ पुरूष नर्तकों को ‘लौंडा’ कहा जाता है। उनका रंग-रूप और वेश-भूषा सुन्दरियों का होता है। उनके बाल लम्बे होते हैं तथा आँखों में काजल, ललाट पर बिन्दिया, पैरों में घुँघरू। बाल लम्बे-लम्बे नहीं होने पर ये नकली बाल लगा लेते हैं। छाती पर कपड़े का पुलिन्दा रखकर सुडौल स्तन बनाते हैं। हर तरह के श्रृंगार-प्रसाधनों से सज-धजकर वे नर्तकियों का हाव-भाव ग्रहण कर नाचते हैं।
देश के कुछ हिस्सों में तो युवक को ‘लौंडा’ कहकर सम्बोधन का आम प्रचलन है। लेकिन हमारे यहाँ किसी को इस शब्द से सम्बोधन कर देने का मतलब होता है, जान लेने-देने की नौबत आना। झरेला गोसाईं को इस शब्द ने तीर-सा बेधकर उसे तिलमिला दिया था। लेकिन उसकी प्रतिक्रिया अचानक मर-सी गई थी। उसने अपने स्वाभिमान के चूर-चूर होने की असह्य पीड़ा को चुपचाप सह लिया था।
अगले साल ही उसने नगीना साव की मण्डली पकड़ ली। नगीना साव की नाच-पार्टी की अच्छी ख्याति थी और चार-पाँच सौ रूपये का सट्टा होता था। इस मण्डली में पन्द्रह-सत्रह कलाकार थे। यह पार्टी ‘लैला मजनू’, ‘सोरठा बृजभार’, ‘आल्हा-उदल’, ‘बेटी-बेचवा’, ‘परदेसिया’ और ‘डाकू मानसिंह’ आदि नाटकों का मंचन भी करती थी। इस मण्डली में तीन-चार नर्तकों के अलावा दो नर्तकियाँ भी थीं। मण्डली में नर्तकियाँ केवल इसलिए रखी जाती हैं, क्योंकि महीन रंगबाज लोग‘लेडी’ को अधिक महत्व देते हैं। नाच-पार्टी का स्तर जानने के लिए वे पूछते, कि पार्टी में कितनी‘लेडी’ हैं?
इस मण्डली के पास श्रृंगार के अच्छे प्रसाधन थे और संगीत के अच्छे वाद्य यंत्र। इस मण्डली में आते ही झरेला गोसाईं की कला और निखर गई। कुछ ही दिनों में उसने मण्डली के तमाम नर्तकों को मात कर दिया। यहाँ तक कि दर्शक नर्तकियों के बदले झरेला गोसाईं की ही मांग करते। उसके गीतों और अंग-प्रत्यंगों के थिरकन का ऐसा भावपूर्ण सामंजस्य होता कि दर्शक आनन्द-विभोर हो उठते। इतनी सोहरत किसी भी मण्डली के किसी नर्तक को कभी नहीं मिली।
एक बार गाँव में किसी के घर बारात आई थी। नगीना साव की मण्डली नाच रही थी। उसमें रात के एक पहर बीत जाने पर झरेला गोसाईँ मंच पर आया था। उसने एक गीत गाया था ‘.....आग लागे सईंया के...सुरतिया....दुखवा में बीतल रतिया......’। इस गीत ने दर्शकों पर जादू-सा रोमांचक प्रभाव डाला था। एक के बाद एक लगातार फरमाइशें होती रही थीं। गाँव के सभी धनी-मानी लोग नाच का लुत्फ़ लेने आ जमे थे। झरेला गोसाईं पर इनाम के रूप में नोटों की बारिस होने लगी थी। इनाम देने की जैसे होड़ मच गई। उसके ब्लाउज़ में इतने अधिक रूपये नत्थी कर दिए गए थे कि ब्लाउज़ रूपये के छापा वाले का बना दिखता था।
दो-तीन घण्टों तक दर्शकों ने उसे मंच से जाने की अनुमति नहीं दी। मेकअप के खेमे में कई नर्तक और दोनों नर्तकियाँ सज-धजकर बैठे रहे। लेकिन लोग तैयार नहीं थे, उनका नाच देखने के लिए। झरेला के पीछे लोग लट्टू हो रहे थे। जैसे-जैसे लोगों की फरमाइश होती गई, उसका उत्साह बढ़ता ही गया और अपनी कला को नए-नए ढंग से प्रस्तुत करके वह लोगों को चमत्कृत करता गया। आज वह स्वयं को गौरवान्वित भी महसूस कर रहा था। लेकिन किसी भी चीज़ की एक हद होती है। लगातार तीन-चार घंटों तक नाचते-नाचते वह बिल्कुल थक गया था। गाने के साथ भाव-अभिव्यक्ति को संतुलित करने में कठिनाई होने लगी थी। हाथ-पैर बुरी तरह दुख आए थे। कमर थिरकाने पर पेट में चुभन होने लगती थी। उसने दर्शकों से हाथ जोड़कर क्षमा माँगी। लेकिन लोग तैयार नहीं थे। मुख्य रूप से गाँव के धनी-मानी और नाम-धाम रखने वाले तीन-चार लोग अड़ गए थे।
कला किसी के लिए हानिप्रद नहीं होती। लेकिन झरेला गोसाईं की कला का यह दुर्भाग्य रहा, कि उसे गाँव के दंगे का माध्यम बनना पड़ा।
वैसे, घटना कोई विशेष नहीं थी।बस, बात इतनी हुई थी कि झरेला जब मंच से जाने लगा, तो जालिमसिंह ने अपने गले का सोने का हार उसे पहना दिया। यह जालिमसिंह की ओर से एक गाना की फरमाईश पूरी करने के लिए अग्रिम उपहार था। झरेला गोसाईं ने जालिमसिंह की फरमाईश पूरी की......हमरा उठता हो राजा जी दरदिया..... दर्शक इस गाने पर झूम से गए। और इसके बाद फरमाइशों का फिर तांता बंध गया। बालमराय ने अपनी चाँदी की बनी छड़ी देते हुए फरमाईश कर दी। नगीन्दर चौधरी ने अपने आदमी भिजवाकर घर से रूपये मंगवाए।झरेला गोसाईँ के लिए धर्मसंकट खड़ा हो गया। वह किसकी फरमाईश पूरी करता और किसकी नहीं। इसलिए, वह चुपचाप उठकर, मेकअप के खेमे में चला गया। बस, बात इतनी हुई थी कि बालमराय उबल पड़े। उनकी प्रतिष्ठा की हानि हुई थी। उन्होंने अपने आदमियों को झरेला गोसाईं को जबरन खींचकर लाने के लिए ललकारा। उनके आदमी अभी उठे ही थे, कि जालिमसिंह उसे बचाने के लिए आगे बढ़ गए। उनके साथ उनके अपने आदमी भी थे। इसी में जमकर लाठी चल गई। कई लोग घायल हो गए। भीड़ में भाग-दौड़ मच गई। नाच पार्टी के मास्टर का माथा फूट गया। झरेला गोसाईं को खींचकर कुछ लोग जबरन गाँव में ले गए।
फिर उसी रात, बालमराय की देहरी पर महफिल जमी थी। बालमराय अब गालियों के साथ फरमाइश करते थे। सुबह होने तक झरेला नाचता रहा था। एक बार तो वह गश खाकर गिर गया था। तब भी उसमें हिम्मत नहीं हुई थी कि वह बालमराय से दो क्षण आराम के लिए भी छुट्टी माँगता।
इस घटना ने गाँव के दलों के मतभेदों की खाई को और बढ़ा दिया। गाँव में झरेला गोसाईं की स्थिति सबसे अधिक असुरक्षित हो गई थी। गोसाईं टोल के लोग झरेला के लिए आगे बढ़ने और प्रतिरोध करने के लिए तैयार नहीं थे। इस घटना के कारण उसका सारा उत्साह निराशा में बदल गया। उसने नाचना-गाना बन्द कर दिया। नगीना साव की नाच पार्टी भी उसने छोड़ दी। इस साल के बाकी लगन में वह कहीं नाचने नहीं गया। घर ही पर रहने लगा, झरेला गोसाईं। अब वह काफी उदास रहने लगा था। गुनगुनाना वह भूल-सा गया था।उसके चेहरे की हँसी खो गई थी। दिन-ब-दिन वह मरियल-सा होता जा रहा था। उसका शरीर भी पीला पड़ने लगा था।
कुछ ही दिनों बाद झरेला गोसाईं के बारे में ज़ोरों का प्रचार फैला कि जालिम सिंह ने झरेलवा को अपना खास ‘लौंडा’ रख लिया है। यह अफ़वाह तब लोगों के विश्वास में बदल गई, जब जालिम सिंह के महथिनदाई वाले पन्द्रह कट्ठवा खेत पर झरेला गोसाईं का हल चल गया। लोगों का यह अनुमान था कि जालिम सिंह ने उस खेत की झरेलवा के नाम रजिस्ट्री कर दी। दरअसल यह जालिम सिंह की खानदान की रईसी परंपरा की अवहेलना थी। अबतक इस रईस कोठी में रखैलें रखने का रिवाज़ चला आया था। जालिम सिंह के पिता कौशिक सिंह के पास तीन-तीन रखैलें थीं। लेकिन जालिम सिंह ने रखैलें रखने के बदले ‘लौंडा’ रख लिया।
अब झरेला गोसाईं का मुख्य काम जालिम सिंह की सेवा-सुश्रुषा करना, उनको रिझाना और उनका मनोरंजन करना-भर रह गया था। महीने में कभी एक बार महफिल भी जम जाती, जिसमें जालिम सिंह के अपने आदमी नाच-गाने का मजा लेते। जालिम सिंह की अनुमति के बगैर अब झरेला कहीं नाच-गा नहीं सकता था। जालिम सिंह ने झरेलवा की सुरक्षा की पूरी जिम्मेवारी अपने पर ले ली थी। वह जिधर जाता था, उसके साथ जालिम सिंह के एक-दो आदमी साथ ज़रूर जाते थे।
लेकिन तीन-चार महीने बाद ही, झरेला गोसाईं ने अपनी अलग नाच-पार्टी बनाकर लोगों को आश्चर्य में डाल दिया। तीन-चार कार्यक्रमों में ही दर्शकों ने यह घोषणा कर दी, कि झरेला की नाच पार्टी भिखारी ठाकुर के बाद दूसरे नंबर पर थी। भिखारी ठाकुर के मरते ही, उसकी पार्टी इलाके की सर्वश्रेष्ठ पार्टी बन गई। जिस बारात में झरेला की पार्टी का सट्टा हुआ, तो समझिए कि वह शादी काफी धूम-धाम से हुई। नाच पार्टी को श्रेष्ठ स्तर पर पहुँचाने के लिए झरेला ने कम प्रयास नहीं किए। वह स्वयं आज तक पार्टी के मुख्य आकर्षण का केंद्र बना रहता था। उसके गाने के ढंग, भाव-प्रदर्शन की अदा और नाच की स्तरीयता में कोई तब्दीली नहीं आई थी। दर्शक उसके मुँह से इस गीत को सुनने के लिए बेचैन-सा हो उठते थे। ‘..........दुखवा में बीतल रतिया.......’
हीरामन बुआ की लड़की जवान हो गई थी। उसकी शादी के लिए बुआ काफी परेशान थीं। घर में कोई मर्द नहीं था, जो वर ढूँढता और दूसरे कामकाज करता। हीरामन, यदि जीते होते, तो भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। वे अक्सर दारू पीया करते थे और छबीली पनेरिन के पास भी जाते थे। इसी से बाप-दादे की ज़मीन-जायदाद गर्क हो गई। हीरामन मरते-मरते ढेढ़-पौने दो बीघा जमीन और एक छप्पर-फूस मकान छोड़ गए। हीरामन, बुआ के गहने-वहने तो पहले ही चट गए थे। इसलिए उनके जीने या मरने से कोई अन्तर नहीं पड़ता था।
बुआ के लिए जीवन-निर्वाह एक कठिन समस्या बन गई थी। कुछ लोगों ने बुआ को सुझाव दिया था, कि वे बाकी खेत-बधार को भी बेच दें। लेकिन बुआ ने ऐसा नहीं किया। वे निर्णय कर चुकी थीं, कि बेटी की शादी में ही खेत-बधार बेचेंगी। इसलिए बुआ के सामने खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने की समस्या उठ खड़ी हुई थी। बुआ आधे की बटाईदारी पर महुआ का फूल चुनती थीं। महुआ के फूल चुनकर वे उसे सुखा देतीं और दारू बनाने के लिए गाँव के पनसारी-बनिया उसे खरीद लेते। फसल कटने के समय बुआ खेत-खेत घूमकर झड़े हुए दाने चुनती थीं। अवारा-अनेरिया गाय-बैलों का गोबर बटोरकर वे गोयठां पाथतीं और उसे बेचतीं। गाँव-पड़ोस में यदि किसी के घर शादी-वादी होती तो बुआ ‘झुम्मर’ गाने जातीं। किसी का लड़का जनने पर वे ‘सोहर’ गातीं और ‘नेग’ लेतीं। ‘नेग’ में बुआ को कभी-कभार धोती-साड़ी भी मिल जाते।
हीरामन ने अपनी अधिकांश ज़मीन जालिम सिंह के हाथों बेची थी। इसलिए बुआ पहले जालिम सिंह के पास ही गईं। लेकिन जालिम सिंह ने ज़मीन खरीदने के प्रति कोई खास अभिरूचि नहीं दिखाई। बुआ हाथ जोड़कर गिड़गिड़ायी थीं, तब जालिम सिंह उनकी ज़मीन खरीदने के लिए तैयार हुए थे। लेकिन जालिम सिंह ने ज़मीन का जो दाम लगाया, वह बहुत ही कम था और बुआ उस भाव से संतुष्ट नहीं थी। गरजू समझकर जालिम सिंह ने कीमत नहीं बढ़ाई।
बालमराय के पास चलीं आईँ हीरामन बुआ। बालमराय नया पर धनी-मानी बने थे। कलकत्ता में उनका गाय-भैंस के दूध का बिज़नेस चलता था और उसमें अच्छी कमाई होती थी। साथ ही बालमराय खेत-बधार बढ़ाने में दिलचस्पी लेते थे। बुआ ने बालमराय के हाथ खेत की रजिस्ट्री कर दी।
लेकिन खेत बिक जाने के बाद बुआ पर जैसे आफत आ पड़ी। जालिम सिंह बहुत खिसिया गए और उनके लोग कई बार बुआ को धमकी दे गए थे। राजपूत टोले के कुछ छोकड़े लंगई-लफंगई पर उतर आए थे। शाम को धुँधलका छाते ही बुआ के छप्पर पर ढेला फेंका करते थे। इससे बुआ डर जाती थीं और उसे रात-भर नींद नहीं आ पाती थी। उनके डर से बुआ अपनी लड़की को एक पल भी अकेला नहीं छोड़ती थीं।
एक दिन बुआ गोसाईं टोला गईं थी। झरेला गोसाईं से वह मिली थीं। वह बुआ की बेटी की शादी में मुफ़्त नाचने पर तैयार हो गया था। बुआ की सहूलियत के लिए उसने बत्ती-शामियाने आदि के व्यवस्था की जिम्मेवारी भी स्वयं पर ले ली थी।
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गाँव से सटे शिवाला पर शामियाना लगा था। इसी में बारात टिकी थी। झरेला गोसाईं की नाच-पार्टी चल रही थी। आज झरेला गोसाईं के नाच में एक नया आकर्षण था, भीड़ लगातार बढ़ती गई थी। बालमराय और नगेन्द्र चौधरी भी आए थे, नाच देखने। लेकिन न जाने क्यों, जालिम सिंह नाच देखने नहीं आए।
जालिम सिंह अपनी कोठी में आदमियों के साथ बैठे हुए थे। दारू और गाँजे की चीलम के दौर चल रहे थे। उनके आदमी पीने-खाने में खो गए थे। लेकिन जालिम सिंह बेचैन से हो रहे थे। उनके कानों में एक सुरीली आवाज़ टकरा रही थी ’......आग लागे सईयाँ के सुरतिया....दुखवा में बीतल रतिया........’ इस गाने को कैसे भूल सकते थे बाबू जालिम सिंह? उनके अंदर बेचैनी का तूफ़ान मच गया था। उनके चेहरे के रंग तेज़ी से बदल रहे थे।
मंडप में शादी की रसम शुरू होने से पहले ही बुआ ने झरेला को शामियाने से बुलवाया था। जात-पांत का भेद किए बिना बुआ ने उसे भाई का रसम पूरा करने के लिए कहा था। झरेला मंडप में घुसा था और वर-वधू पर अच्छत-फूल छिड़क दिए थे। तब बुआ की आँखों में आँसू उमड़ पड़े थे। झरेला शामियाना के लिए लौट गया था।
लेकिन शामियाने तक वह पहुँच नहीं पाया था। गाँव से बाहर निकलते ही कुछ लोग उसपर टूट पड़े थे। कुछ देर तक लाठियाँ बरसती रही थीं। बाद में वह भैरो बाबा के पेड़ के नीचे वाले बरहम-चबूतरे पर जा गिरा था। चीख-पुकार सुनकर कुछ लोग इधर आए थे। टॉर्च की रोशनी में उन्होंने झरेला गोसाईं को बेहोश पाया। उसके नाक के खून के फव्वारे चल रहे थे और सर फट गया था। बैलगाड़ी पर लादकर उसी रात उसे आरा लाया गया था और अस्पताल में भर्ती कराया गया था।
दो-तीन दिनों बाद मैं अस्पताल गया था। सर्जिकल वार्ड के तेरह नंबर बेड पर था वह। उसके एक पैर पर प्लास्टर चढ़ा था और दोनों हाथों को कमानियों के सहारे सीधा बांध दिया गया था। मेरे सिरहाने पहुँचते ही उसने आँखें खोल दी थी। उसके आँखों से आँसू के बूंद छलक गए थे।मैंने पूछा था---
----कैसे हो अब ?
---- अभी भी जी रहा हूँ भईया ! उसका गला रूँध-सा गया था।
---- कौन-से लोग थे ?
---- अपने ही लोग ! वह डबडबा गया था।
---- जालिम सिंह के आदमी तो नहीं थे ? मैंने फिर पूछा था।
---- ‘..........’ उसने कोई जवाब नहीं दिया।
----- माला कहाँ है ? एक पल बाद उसने पूछा।
----- वह ससुराल चली गई। लेकिन हीरामन बुआ तो पागल हो गई हैं। मैंने उसे बताया। उसने एक लम्बी साँस ली थी। फिर मैं लौट आया था।
एक-सवा महीने बाद झरेला अस्पताल से मुक्त होकर गाँव आया। अब वह घर से बाहर नहीं निकलता। वह अभी ठीक से चल-फिर भी नहीं सकता। उसके दाँए पैर पर अब भी सेंधा नमक और कड़ुआ तेल रगड़ा जाता है। एक दिन मैंने उससे पूछा----अब क्या करोगे झरेला ?
---- अब नाच तो सकता नहीं भईया। अब बाबू के साथ कच्चा दूध पीने जाया करूँगा....उसके इस जवाब ने मुझे भीतर से बाहर तक झकझोर कर रख दिया। उसके मन में दो बातों का बहुत दुख था। एक तो वह अब नाच नहीं सकता और दूसरे, लोग उसके नृत्य-कला को बहुत जल्द भूल गए। आज वह यदि किसी से दस पैसे भी माँगे, तो पैसा देने वाला बिना उसे देखे आगे बढ़ जाएगा।
उसी रात तीसरे पहर आवारा कुत्तों ने भौंककर मेरी नींद तोड़ दी। रात के शान्त-स्तब्ध वातावरण में तैरती मन्द हवा के साथ एक सुरीली आवाज़ कानों तक आ रही थी ‘......आग लागे सईयाँ के सुरतिया.....दुखवा में बीतल रतिया........’ कुछ पल बाद यह आवाज़ मन्द पड़ती गई। तभी मुझे एहसास हुआ कि बगल की कोठी से एक पैशाचिक हँसी का बवंडर उठ रहा है। जालिम सिंह अट्टहास कर रहे थे। इतनी रात गए। झरेला की सुरीली आवाज़ जालिम सिंह के अट्टहास के नीचे दबती चली गई।
लेकिन, मुझे ऐसा महसूस होता है कि ‘झरेला गोसाईं अभी आधा से अधिक ज़िंदा है और आधा से कम ही मरा है....’
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