(निखिल आनंद गिरि ने अपने जन्मदिन के मौके पर ये कविता 'बैठक' पर जारी की थी..कविता को आप भी महसूस कर सकें इसलिए 'बैठक' से साभार लेकर इसे जारी कर रहा हूं...जरूर पढ़िए)
तितर-बितर तारों के दम पर,
चमचम करता होगा रात का लश्कर,
चांद छुट्टी पर रहा होगा उस रात...
एक दो कमरों का घर रहा होगा,
एक दरवाज़ा जिसकी सांकल अटकती होगी,
अधखुले दरवाज़े के बाहर घूमते होंगे पिता
लंबे-लंबे क़दमों से....
हो सकता है पिता न भी हों,
गए हों किसी रोज़मर्रा के काम से
नौकरी करने....
छोड़ गए हों मां को किसी की देखरेख में...
दरवाज़ा फिर भी अधखुला ही होगा...
मां तड़पती होगी बिस्तर पर,
एक बुढ़िया बैठी होगी कलाइयां भींचे....
बाहर खड़ा आदमी चौंकता होगा,
मां की हर चीख पर...
यूं पैदा हुए हम,
जलते गोएठे की गंध में...
यूं खोली आंखे हमने
अमावस की गोद में...
नींद में होगी दीदी,
नींद में होगा भईया..
रतजगा कर रही होगी मां,
मेरे साथ.....चुपचाप।।
चमचम करती होगी रात।।।
नहीं छपा होगा,
मेरे जन्म का प्रमाण पत्र...
नहीं लिए होंगे नर्स ने सौ-दो सौ,
पिता जब अगली सुबह लौटे होंगे घर,
पसीने से तर-बतर,
मुस्कुराएं होंगे मां को देखकर,
मुझे देखा भी होगा कि नहीं,
पंडित के फेर में,
सतइसे के फेर में....
हमारे घर में नहीं है अलबम,
मेरे सतइसे का,
मुंहजुठी का,
या फिर दीदी के साथ पहले रक्षाबंधन का....
फोटो खिंचाने का सुख पता नहीं था मां-बाप को,
मां को जन्मतिथि भी नहीं मालूम अपनी,
मां को नहीं मालूम,
कि अमावस की इस रात में,
मैं चूम रहा हूं एक मां-जैसी लड़की को...
उसकी हथेली मेरे कंधे पर है,
उसने पहन रखे है,
अधखुली बांह वाले कपड़े...
दिखती है उसकी बांह,
केहुनी से कांख तक,
एक टैटू भी है,
जो गुदवाया था उसने दिल्ली हाट में,
एक सौ पचास रुपए में,
ठीक उसी जगह,
मेरी बांह पर भी,
बड़े हो गए हैं जन्म वाले टीके के निशान,
मुझे या मां को नहीं मालूम,
टीके के दाम..
--निखिल आनंद गिरि
बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति है......मन को छू गई
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