Sunday, August 15, 2010

आज़ादी की कहानी, आम आदमी की ज़ुबानी..

(महुआ न्यूज़ पर आज़ादी के दिन प्रसारित स्पेशल बुलेटिन का एक हिस्सा....)

मैं आम आदमी हूं... आजाद..आजाद देश और आजाद अवाम का एक हिस्सा हूं..मैं आजाद हूं...अंग्रेजों के खिलाफ मेरे पुरखों के खून जिस मिट्टी पर पसरे थे मैं उसी मिट्टी का एक लाल हूं..जो महसूस करता हूं आजादी को अपनी रगों में...इस आजादी का फक्र मुझे हर दिन सुबह की लालिमा, दोपहर की तल्खी और सांझ के धूसर सौंदर्य में महसूस होता है..लेकिन फिर भी कहीं उदास हूं मैं...जब किसी गांव में नंगा कर दी गई सुखनी डायन बताकर और भीड़ टूट पड़ी उस पर भूखे भेड़िये की तरह, जब देह में धंस रही नजरों की वजह से घर के बाहर जाकर नहीं पढ़ सकी मुन्नी, जब अनाज उपजाने वाले किसान के हाथ में मुट्ठी भर गेहूं समेट सकने से ज्यादा आसान फांसी लगा लेना होता है, जब भूख से मर गया था कानू डोम और सरकारी नुमाइंदों ने नहीं मानी भूख को मौत की वजह...जब नक्सलियों और पुलिस के बीच हर रोज खेला जाता है एक दूसरे को लाशों में तब्दील करने का खेल.....जब प्रांतवाद के नाम पर सड़कों पर रोजी रोटी चलाने वालों पर बरसाईं जाती हैं लाठियां..जब रोज अपने आशियाना को डूबते देख रहे लोगों की बेचैनी पर गाढ़ा होता जाता है सियासत का रंग और सियासतदां के घर के कमरे में फैली रूम फ्रेशनर की खुशबू में दब जाती हैं लाशों से आती बू...तो दरक जाता है मेरा
कलेजा...क्योंकि मैं आम आदमी हूं....आजादी का रंगीन चश्मा पहने आम आदमी...आजादी के आइने में देश के युवाओं के चेहरों पर झुर्रियां और जवान शरीर पर बेड़ियां देख के रोता हूं मैं...और तब लगता है आजादी के इस रंगीन चश्मे का रंग काला पड़ गया और छा गया आंखों के सामने अंधेरा...फिर तलाशने लगता हूं मैं आजादी के मायने...तब लगता है मुझे कि घर में तकिया के भीतर मुंह छिपाकर रो लेना ही आजादी है तो हैं हम आजाद,नहीं तो मुंहतक्की करनी पड़ेगी जनाब...आजादी को महसूस करने के लिए...लेकिन फिर अचानक फड़क जाती हैं मेरी देह..कुछ लोग हैं जो लड़ रहे हैं नंगई के खिलाफ...कुछ तैयार बैठे हैं इस लड़ाई का कंधा बनने के लिए...ये लोग अंदरूनी तौर पर आजादी को खा रही ताकतों से बचाने की फिराक में लहूलुहान कर रहे हैं अपनी देह...कुछ लोग जिंदा हैं और जगे हुए हैं..ये लोग हैं आम आदमी बिल्कुल मेरी तरह..आपकी तरह... यही आस काले चश्मे का रंग फिर रंगीन कर देती है..और फक्र होता है कहने में कि मैं....आम आदमी हूं और मैं आजाद हूं...
                                                                                                                                   ---अमृत उपाध्याय
((इस इकरारनामे को जारी रखते हुए राकेश पाठक की कलम ने बयां किया है ...आज़ादी के दिन इस आम आदमी की अकुलाहट...))
आज न जाने क्यूं ऐसी कोई भी तस्वीर देखने का जी नहीं करता जिसमें परवाज़ की कोई गुंजाइश न दिखे। हर आखिर खास जो है आज का दिन। ज़रा महसूस करिए न अपने आसपास आज के धड़कते इस दिन को। सब वैसे ही है मंदिर की घंटी, अंगीठी में धधकती आग, चाय के गिलास में गिरने का सलीका। हमारी आपकी ज़िंदगी की भागम-भाग, उलझन सब। लेकिन फिर भी दिन खास है।
आज़ाद हवा की खुशबू कहीं अंदर तक उतरती है। कहीं नहीं रुकती थोड़ी देर थमती है फिर निकल चलती है। रंग आजादी के कई हैं...ज़ाएके भी तो हैं...हमारे अपने जाएके...आम आदमी के ज़ाएके...सबके पास अपना हुनर है आज़ादी को महसूस करने का। इसके ज़ाएके को चखने का।
फिर आज़ादी दरस तो ऐसे ही देती है दिन उगने के साथ...उसके बुझने के साथ। इस एहसास के साथ सारा आसमान हमारा न सही तो अपने वतन के ऊपर ठहरा आसमां हमारा है। इसकी पीली सुनहरी धूप हमारे ज़िस्म की हरारत में घुली है कहीं। तो आइए एक चाय के साथ हो जाए हमारी आज़ादी का सेलिब्रेशन....आम आदमी की तरह।
                                                                                                        ----राकेश पाठक

3 comments:

  1. बहुत खूब.......
    बिल्कुल सही कहा आपने... आजादी का मतलब समझाया... क्या सचमुच हम आजाद हैं ?

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  2. आपके लिखे पर कुछ न कह कर सिर्फ आम आदमी के शायर साहिर लुधियानवी के शब्दों में यही कहना चाहूंगा...
    'वो सुबह कभी तो आएगी.
    जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं.
    जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं.
    वो सुबह न आए आज मगर, वो सुबह कभी तो आएगी.
    वो सुबह कभी तो आएगी...'
    ...तमाम ना उम्मीदियों के बावजूद एक बेहतर दुनिया की उम्मीदें कायम हैं... और आप जैसों की सोच इसे और परवान चढ़ाती है...

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  3. very nice. I can feel every word of it and relate my self. I must say that the beauty of this article. Ways to go dude :)

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