Thursday, September 16, 2010

जा रहा हूं।

मैं गाँव से जा रहा हूँ


कुछ चीज़ें लेकर जा रहा हूँ
कुछ चीज़ें छोड़कर जा रहा हूँ

मैं गाँव से जा रहा हूँ

किसी सूतक का वस्त्र पहने
पाँच पोर की लग्गी काँख में दबाए

मैं गाँव से जा रहा हूँ

अपना युद्ध हार चुका हूँ मैं
विजेता से पनाह माँगने जा रहा हूँ

मैं गाँव से जा रहा हूँ

खेत चुप हैं हवा ख़ामोश,
धरती से आसमान तक तना है मौन,
मौन के भीतर हाँक लगा रहे हैं मेरे पुरखे... मेरे पित्तर,
उन्हें मिल गई है मेरी पराजय,
मेरे जाने की ख़बर

मुझे याद रखना
मैं गाँव से जा रहा हूँ । 
                                   --निलय उपाध्याय
(निलय उपाध्याय की इस कविता को पिछले कई दिनों से तलाश रहा था...फेसबुक पर एक बार फिर ये कविता पढ़ने को मिली...)

5 comments:

  1. बहुत गहरी रचना...आभार!

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  2. निलय जी की इस कविता के मायने बेहद खास हैं...उन परिस्थितियों को मैं ज्यादा करीब से महसूस कर सकता हूं जब ये कविता लिखी गई...मन को कहीं भीतर तक भेद जाती है ये कविता खास कर ये लाइनें..
    खेत चुप हैं हवा ख़ामोश,
    धरती से आसमान तक तना है मौन,
    मौन के भीतर हाँक लगा रहे हैं मेरे पुरखे... मेरे पित्तर,
    उन्हें मिल गई है मेरी पराजय,
    मेरे जाने की ख़बर

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  3. हुत गहरी रचना...
    !!!

    अथाह...



    !!!

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  4. खेत चुप हैं हवा ख़ामोश,
    धरती से आसमान तक तना है मौन,
    मौन के भीतर हाँक लगा रहे हैं मेरे पुरखे... मेरे पित्तर,
    उन्हें मिल गई है मेरी पराजय,
    मेरे जाने की ख़बर

    बहुत सुंदर ...
    भाव पक्ष बहुत ही सशक्त है ....
    कविता निलय जी की है ये जान गयी हूँ ....
    पर जानना चाहती हूँ निलय जी आपके कोई सगे हैं आप भी उपाध्याय लिखते है इसलिए .....!!

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  5. निलय जी को जानता हूं...सगे इसलिए हैं क्योंकि बचपन से जानता हूं उनको...और मेरी विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने अपनी बौद्धिक क्षमता से मुझे मजबूत बनाने में मदद की...दोनों लोगों का उपाध्याय लिखना महज संयोग है...

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