बिल्कुल सपाट सी तो नहीं,
लेकिन इतनी
कि चिढ़ा सकें गांव और कस्बों से
मोटरी बांध कर आए लोगों को,
और लजा जाएं हमारे जैसे चंद लोग।
चंद क्यों, पूरी जमात ही
जो रोटी की तलाश में,
समा गए बड़े शहर में..
जिन्हें सुकून नहीं मिलता सोचकर,
कि भागते दौड़ते लोगों के पीछे लगकर,
सही तो किया न...
लजा तो मैं भी जाता हूं, रोज,
उनकी तरह,
जो नहीं जानते तहजीब
और खुली आंखों वाला सो रहा इंसान
इस सड़क की जरूरत हैं,
वाज़िब जरूरत, शायद।
---अमृत उपाध्याय
रोटी...
ReplyDeleteजुगाड़ बन गई है
रोटी खिलवाड़ बन गई है
हड्डी के ढांचों पर राजनीति
अक्सर रोटी सेकती है...
तमाम दधिचियों की आहूति से...
हर रोज़ राजनीति चमकती है...
हर रोज़ किसी न्यूज़ चैनल पर...
इनकी खबरें वेश्या सी मचलती हैं...
सुनो अगर हो सके तो कान मत दो
मुल्ला, मस्जिदों में अज़ान मत दो
मंदिरों की घंटियों उतार फेंकों...
क्योंकि हर तरफ अस्थि पंजर फैले है...
शुभता का कहीं भी संकेत नहीं...
राजनीति में हर चेहरे मनहूसियत की हद तक मैले हैं...