मैं पापा के तौर पर ही जान सका उन्हें...रामेश्वर उपाध्याय किस शख्सियत का नाम है, ये समझने का मौका नहीं मिला शायद..बहुत छोटा था मैं, कहने को उंगुलियां पकड़नी सीख ली थी लेकिन दरअसल उनकी उंगुलियों के स्पर्श के भाव और गहराई को समझने का दौर था, जिस वक्त पापा हमसे दूर चले गए...इसलिए मैं पापा के बारे में ही कुछ लिख सकूंगा..क्योंकि रामेश्वर उपाध्याय के बारे में लिखने की सोच रहा हूं पिछले तीन दिनों से लेकिन शब्द साथ देने को तैयार नहीं है....तस्वीरें जेहन में बिल्कुल ताजा हैं...मैं महसूस कर सकता हूं...ठंड के दिनों में सुबह साढ़े चार बजे का वक्त हुआ करता था जब पापा हमें मॉर्निंग वॉक के लिए उठाते थे..फिर हमसभी रमना मैदान जाते थे टहलने...मैं साइकिल भी चला लेता था वहीं और कभी क्रिकेट खेलता था...छोटा था लेकिन मैं जब खेलता या साइकिल चलाता तो पापा के चेहरे पर खुशी को उस वक्त भी महसूस कर सकता था, हां समझ शायद नहीं थी...आज समझ पाता हूं, ये उस कसक के खिलाफ जीत की खुशी थी जो बचपन से पापा ने महसूस किया होगा...पापा टहलते वक्त तेज कदमों से चलते थे....हरे घास पर..मुझे याद है अक्सर लौटते वक्त कचरा उठाते बच्चों को देखकर उनकी रफ्तार धीमी पड़ती थी..फिर वो हमें दिखाते थे--'ये तुम्हारे ही जैसे बच्चे हैं...लेकिन इन्हें भूख से लड़ने के लिए कचरा चुनना पड़ता है..कचरे में मिले प्लास्टिक और शीशे की बोतलों को बेचकर ये चवन्नी की कमाई करेंगे और तब जाकर आज सुबह की भूख मारने का जुगाड़ हो सकेगा..ये बातें इसलिए नहीं थी कि हमें उनपर दया आए...बल्कि कई दफे सुनने के बाद इन बातों ने तय कर दिया था कि ये लोग जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं..स्ट्रगल फॉर सरवाइवल....वक्त बीता...मुझे क्या पता था कि जिस इंसान की उंगुलियां पकड़कर मैंने चलना सीखा वो एक बेहद दूरदर्शी सोच वाला इंसान है....एक ऐसी शख्सियत जिसकी अपनी नींव उनकी खुद की रखी हुई थी...और हमसे कही गई हर बात का जिंदगी भर साथ देने वाला अर्थ होता था। एक दिन गोला गया था मैं सब्जी लाने, शायद ये दूसरी या तीसरी दफा होगा जब मैं सब्जी लाने के लिए गया हूं..अक्सर भैया जाते थे...गोला पहुंचा तो मेरी क्लास का एक लड़का साग बेचते हुए दिख गया था...मैंने उसे देखा और बिना सब्जी लिए घर की तरफ भागा...आंखें डबडबाई हुईं थीं...शाम का वक्त था, पापा छत परबैठे हुए थे....मैं सीधा छत पर पहुंचा था और पापा ने देखते ही पूछा था क्या हुआ बेटा...मैं फफक कर रो पड़ा था..
.शायद जिंदगी की ऐसी हकीकत को देखने का पहला मौका था...पापा ने मुझे समझाया...उन बातों ने उस दिन कचरा उठाने वालों से लेकर सब्जी बेचने वाले अपने दोस्त तक की तस्वीर का मर्म समझा दिया था.और उस दिन अपने साथ पढ़ने वाले उस लड़के के लिए जो सम्मान जागा वही नींव शायद पापा रखना चाहते थे...सुबह टहल कर हम वापस आते तो चाय होती..हाफ कप चाय पीते थे पापा..कड़क..बोलते भी थे मम्मी से...मनुआ हाफ कप चाय बनाओ.थोड़ा कड़क...मनु बोलते थे पापा मां को..और अक्सर मनुआ...गर्मी की सुबह हो या फिर ठंड की...सुबह पापा बागवानी जरूर किया करते थे..छत पर उन्होंने करीब 200 पौधे लगाए थे..जिनमें अधिकतर थे गुलाब..गुलाब की नयी कलियां जिस दिन खिलती थीं उस दिन की सादगी सबसे ज्यादा होती थी शायद उनके लिए...सबको आवाज देकर बुलाते थे छत पर से...और उनकी बातों में इतनी गहराई होती थी कि उस कली के खिलने की खुशी को हम महसूस कर लेते थे...जिंदगी भर याद रह जानेवाली दूसरी सीख हमें छत पर खिले कलियों को देखते वक्त ही मिली...पापा बताते थे कली से गुलाब बनने तक का सफर फिर गुलाब की खुबसूरती का चरम और वक्त के साथ उसका मुरझा जाना, हां और ये भी कि अगर किसी ने इसे तोड़ दिया तो उम्र के पहले की मौत का दर्द होगा..उसे भी और उसे देखकर खुश होनेवालों को भी..लेकिन उसके बाद ये भी कि यही संघर्ष जीवन है...। पापा की इस बात का साथ बेहद मजबूत रहा....बहुत मजबूत...। जिस पुराने मकान में रहते थे हम वहां दो कबूतर रहा करते थे मेरे कमरे के ऊपर एक वेंटीलेटर के लिए जगह छोड़ा गया था वहीं उन्होंने घोंसला बनाया था....दिन भर शांत से बैठे रहते..
मीसा के तहत नजरबंदी के बाद की तस्वीर |
पत्रकारिता के दौरान की तस्वीर |
एक उड़ता फिर कोई डंठी लेकर चला आता..फिर उनके अंडे हुए पांच...और बिल्ली की नजरें गड़ गईं...एक अंडा फूट गया गिरकर, बच्चे हुए तो दो मर गए...पता नहीं कैसे..हमारा मन उदास था और हम तीनों भाई बहन को खाने तक मन नहीं हो रहा था...उस दिन पापा ने फिर समझाया था जिंदगी की लड़ाई को देखने का नजरिया कैसा हो...ये सब मिलकर अब समझ में आती है..महसूस होती हैं..पापा की बातें..संघर्ष करने वालों की जीत होती है....ये सबक जिसने हमारे मन में बीज डाला कि कमजोर लोग जिंदगी से भागते हैं..जिसकी बदौलत हमने पापा की हत्या के बाद आत्महत्या करने की नहीं सोची...जिसकी बदौलत हमने लड़ने की ठानी...और मझधार में तैरने की कोशिश की...
सही जा रहे हैं...आपको पढ़ने का बहाना मिल गया....मैं इंतजार में हूं कि कब दुखवा में बीतल रतिया का ज़िक्र आएगा....इस एक कहानी ने आपके पिताजी को मेरा प्रिय साहित्यकार भी बना दिया है....जहां भी हैं, मुझे भी आशीष देते रहें....
ReplyDeleteआपके पिताजी की जिंदगी और उनकी कहानियां, सिर्फ आपके लिए ही नहीं, बहुतों के लिए प्रेरणा का सबब बनती हैं...जिन्होने उन्हे पढ़ा-जाना है वे जानते हैं... बहुत बढ़िया... गुजारिश यही है कि संस्मरणों की ये खेप आगे भी आती रहे, ताकि आपके संस्मरण के बहाने कई और लोग भी अपने दौर के सशक्त कथाकार और उससे भी अच्छे इंसान रामेश्वर उपाध्याय जी से रुबरु हो सकें...
ReplyDeleteजिसकी बदौलत हमने पापा की हत्या के बाद आत्महत्या करने की नहीं सोची...जिसकी बदौलत हमने लड़ने की ठानी...और मझधार में तैरने की कोशिश की...
ReplyDeleteओह कैसे हुई थी उनकी हत्या ....?
आपके माध्यम से ही उन्हें जाना ....
पहले पढ़ा नहीं उन्हें ....
@हरकीरत हीर.....मैम कोशिश करूंगा कि जल्द ही उनकी कहानियाँ ब्लॉग पर जारी कर दूं....
ReplyDelete@निखिल आनंद...भाई जल्द ही 'दुखवा में बीतल रतिया' नेट पर जारी करूंगा...
ReplyDeleteइंसान को एक न एक दिन ये दुनिया छोड़ कर जाना ही है...और हम सब भी जायेंगे। लेकिन किस वजह से आपके पिता जी की हत्या हुई वो उनकी शक्सियत और उनकी रचनाओं को पढ़ने से ही अंदाजा हो जाता है। समाज के बेहतरी के लिए आवाज जो उन्होने बुलंद की वो उनकी यादों के जरिए लौ की तरह आपके पास है..जरुरत है इसे मशाल बनाने की...जय हो!
ReplyDeleteExperience is not what happens to you..
ReplyDeleteit is what you do with what happens to you...
A soulful writting Bhaiya...Touched.
सही कहा प्रशांत...शब्दों के ज़रिए बेहद खूबसूरती के साथ अमृत ने बचपन से पापा के साथ कि संजोयी यादों को उकेरा है...जो पढ़ते वक्त एकाएक ही सजीव सी लगने लगती है अपनी आंखों के सामने...और आ जाते हैं चेहरे पर हर पंक्ति के साथ वो भाव.. जो पापा के साथ बतियाते और नसीहत पाते वक्त तीनों भाई-बहनों के चेहरे पर आ जाता होगा शायद...शुक्रिया मित्र अमृत, जो इस संस्मरण के ज़रिए हमें एक आदर्श स्थापित कर सकने वाली शख्सियत को जानने का मौका दिया...
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