‘तलाश’
रीमा कागती ने एक अलग तरह की फिल्म(तलाश) बनाने की कोशिश की है......एक ऐसी
फिल्म जो कोई ट्रेंड सेट करने में भले ही कारगर ना हो लेकिन कॉमेडी और एक्शन पर
लगभग एक जैसी बन रही बाकी फिल्मों से अलग खड़ी है....यकीनन फिल्म का कंटेंट लोगों
की फिल्म के बारे में राय को बांटता है..जो लोग इसे अंधविश्वास के प्वाइंट ऑफ व्यू
से तौले तो बकवास करार दे सकते हैं, या फिर जो लोग आमिर की छवि में बंधकर फिल्म
देखें तो उन्हें यकीनन निराशा हाथ लग सकती है..लेकिन इसे अगर बिना किसी पूर्वाग्रह
के सिर्फ एक फिल्म की तरह देखें तो रीमा ने कहानी को बखूबी पर्दे पर उतारा है......तलाश कॉन्क्ल्यूजन देने वाली मूवी नहीं है जैसा अमूमन भारतीय सिनेमा में
दिखता या होता है, और दर्शक ऐसी ही फिल्मों को एक्सेप्ट करते हैं जिसके विषय को
लेकर वो सटीक निष्कर्ष निकाल पाते हैं....ये फिल्म निष्कर्ष पर नहीं पहुंचाती है,
बल्कि आपको ऊहापोह की स्थिति तक लाकर छोड़ देती है. जहां से दर्शक अपनी बीती हुई
जिंदगी से जुड़ी कुछ बातों को, वाकयों को याद कर निष्कर्ष की तलाश में रहे..या आने
वाले दिनों की कुछ घटनाओं की कल्पना कर निष्कर्ष तलाशे..
कुछ लूपहोल जरूर दिखते हैं इस फिल्म में...जैसे कई जगह फिल्म बहुत धीमी
महसूस होती है,,,, फिल्म के आखिर में ये दिखाने से कि शेखावत दरअसल लिफ्ट में और
कार में अकेले ही हवा में बात कर रहा होता है, ये स्पष्ट करता है कि रोजी फिजीकली
मौजूद नहीं है, लेकिन इस दौरान कुछ खामियां झलकती हैं, जैसे उसका होटल का रूम खोल
कर शेखावत के साथ अंदर जाना, या उसकी अंगूठी जो कब्र खोदने के बाद शेखावत पहचान
जाता है...और घर लाता है....इससे फिल्म के आखिर में शेखावत के साथ बीती हुई घटना
को सिर्फ एहसास साबित करना मुश्किल हो जाता है, लेकिन इन खामियों को दरकिनार इसलिए
किया जा सकता है क्योंकि कई लोगों के जीवन में ऐसी घटनाएं होती हैं जिन्हें वो
जीवन भर समझ नहीं पाते...भले ही वो घटनाएं वहम या मनोदशा की वजह से ही हो, लेकिन
ऐसी घटनाओं को सिर्फ अंधविश्वास कहकर नहीं नकारा जा सकता..बल्कि विज्ञान के भीतर
भी ऐसी घटनाओं को लेकर शोध जारी है...इसलिए इसे अंधविश्वास बनाम विज्ञान के चश्मे
से देखना शायद फिल्म के साथ ज्यादती होगी...या कमाई से फिल्म की कामयाबी आंकना भी
गलत होगा..
आमिर खान की पिछली फिल्मों को देखें तो फिल्म उनकी माइलस्टोन मूवी नहीं है,
इसमें कहीं दो राय नहीं...लगान, गजनी, दिल चाहता है, थ्री इडियडट्स, जैसी फिल्मों
ने आमिर का जो इमेज सेट किया है उस इमेज को नुकसान पहुंचने का खतरा आमिर ने इस
फिल्म में जानते बूझते हुए उठाया है...फिल्म की पूरी टीम ने एक बड़ा खतरा उठाया है
इसे बनाकर, और इसके लिए वो बधाई के पात्र हैं...कुल मिलाकर कहें तो तलाश देखकर आने
वाला शख्स अगर जमकर इसकी तारीफ ना कर पाए तो बकवास कहकर इसे खारिज भी नहीं कर
सकता...बतौर दर्शक मुझे ये फिल्म वन टाइम मूवी लगी, अलग और अच्छी लगी..
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