सोशल बनाम सिविलाइज़्ड!
बहुत वक़्त नहीं बीता है जब कलम चलाने वालों लोगों की सबसे बड़ी मुसीबत हुआ
करती थी कि वो अपनी बात किस मंच पर साझा करें. दिमागी उथल-पुथल को वैचारिक बहस में
तब्दील कर पाने की छटपटाहट कागज़ पर दफ़्न हो कर रह जाती थी. संचार क्रांति के बूते
आज हम उस संकट के दौर से यकीनन बाहर आ गए हैं. किसी आर्टिकल से लेकर दिमागी फ़ितूर
के तौर पर पनपे एक पंचलाइन के लिए भी फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स एप और ब्लॉग आदि
सहारा बन गए हैं. लाइक और कमेंट्स की चाशनी भी रिझाती रहती है-मतलब, फीडबैक भी मिल
जाता है. कुल मिलाकर अभिव्यक्ति की आज़ादी को नये पंख मिले हैं, इसमें दो राय नहीं
है. लेकिन इस दौरान एक नयी मुसीबत सामने आ गई है --- जिसका नाम है ‘कुछ भी लिख देने की
ज़िद्द’. ‘कुछ भी’ मतलब कुछ भी, बिना यह परवाह
किए कि उससे हमारे बीच कोई हलचल तो नहीं मच रही है. विश्व कप में भारत-पाकिस्तान
मैच को लेकर ऑल इंडिया रेडियो से जुड़ा रीट्वीट्स का मसला हो या बीते वक्त में बाल
ठाकरे पर टिप्पणी के मसले पर दो लड़कियों की जान साँसत में पड़ने का मुद्दा, इस
समस्या की जड़ें रोज़-ब-रोज़ गहरी और मज़बूत होती जा रही हैं.
पिछले दिनों राजदीप सरदेसाई ने जब प्रधानमंत्री मोदी को लेकर अमेरिका में
कुछ सवाल पूछे और इस दौरान मोदी समर्थकों के साथ उनकी हाथापाई की नौबत आ गई तो
सोशल मीडिया पर ज़बर्दस्त प्रतिक्रियाएँ आयीं. ज़्यादा प्रतिक्रियाएँ किसके पक्ष
में आयीं और किसके विपक्ष में, मुद्दा ये नहीं था. मुद्दा था, लोगों की उबलती
भावनाओं का अपनी सीमा और मर्यादा से बाहर जाकर व्यक्त होना. इसी तरह बाला साहेब
ठाकरे पर टिप्पणी करने वाली लड़कियों को लोगों ने वाहियात भाषा में इतना कुछ लिखा कि
उन्हें डर के मारे घर से निकलना तक बंद करना पड़ा. कुछ दिन पहले हुए भारत-पाकिस्तान
मैच को लेकर हुए कमेंट्स को पढ़कर लग रहा था जैसे खेल नहीं, युद्ध का मैदान तैयार
हो और पूरा पाकिस्तान आज मानचित्र पर अंतिम दिन ही दिख रहा हो. यहाँ खेल और खेल
भावना हाशिए पर चले गए और नफ़रत व तनाव का माहौल बन गया. समस्या प्रतिक्रियाओं में
नहीं है, प्रतिक्रिया व्यक्त करने के तरीकों में है. सभ्य समाज में अपनी बात रखने
का एक सभ्य तरीका होता है,लेकिन इन प्रतिक्रियाओं को पढ़ कर लगता है जैसे समाज का
बदरंग और बदरूप चेहरा अचानक सामने आ खड़ा हुआ हो. विश्व में तेज़ी से उभर रहे पढ़े-लिखे
भारतीयों का ये तबका,जब ऐसे तेवर में पेश आए तो आश्चर्य होना लाज़िमी है.
पिछले दो साल में घटे इन तीनों मामलों का ज़िक्र करने के पीछे मकसद पिछले
कुछ समय में सोशल साइट्स पर हमारे एपीएरेंस की गुणवत्ता को टटोलना है. पिछले कुछ
समय में सोशल साइट्स पर हमारा ग्रोथ पोज़िटिव रहा या ग्राफ और नीचे गिरा है. इसके
लिए सोशल साइट्स पर सक्रिय विभिन्न वर्गों की बात कर लें तो स्थिति ज़्यादा स्पष्ट
होगी. फेसबुक जैसे साइट्स पर एक वर्ग है लेखकों और साहित्यकारों का. इनके ज़रिये
वैचारिक मंथन लगातार चलता रहता है, साथ ही क्रिएटिविटी की दुनिया के तमाम अपडेट्स
मिलते रहते हैं. देश-दुनिया में हो रही घटनाओं पर बहस-मुबाहिसों का दौर भी गर्म
रहता है. एक वर्ग है एजुकेशन फील्ड से जुड़ा हुआ है, जैसे कई कोचिंग संस्थान या
सरकारी नौकरी या इंजीनियरिंग और मेडिकल फील्ड की तैयारी करने-कराने वालों का वर्ग.
एक तबका बिजनेस वर्ग का भी सक्रिय है, जो अपने प्रोडक्ट को स्पांसर करता है और
उसकी पहुँच बढ़ाता है.राजनीतिज्ञों में भी सोशल मीडिया की उपयोगिता को लेकर आजकल
खूब जागरूकता है, ख़ासकर पिछले चुनावी माहौल के बाद तो बहुत ज़्यादा. तमाम छोटे-बड़े
राजनीतिक नेता अब सोशल साइट्स पर सक्रिय हैं. पर आजकल इन सबसे बड़ा वर्ग है राजनीतिक
भक्तों का,जिनकी बड़ी तादाद फेसबुक पर हावी है.यही वो लोग हैं जिनके बूते राजनीतिक
पार्टियां अब सोशल साइट्स के ज़रिये हवा का रूख़ मोड़ने का दांव खेल रही हैं. कई
शख्सियतों और अलग-अलग दलों के अतिवादी समर्थकों की बड़ी भीड़, जो हमेशा-- फ़ैसला
कर देने के मूड में दिखती है. इन भक्तों में राजनीतिक विषयों को लेकर तकरार कम है,
धार्मिक ठेकेदारी की लड़ाई ज़्यादा दिखती है. रोज़ कुछ नये फ़तवे पढ़ने को मिल ही
जाते हैं, जिनके नीचे आपकी जाति, धर्म, खून, इलाके आदि का हवाला देकर लिखा होता
है, कि अगर असली हो तो शेयर करो. गाली-गलौच वाले पोस्ट और कमेंट्स लिखने वालों की
भी लंबी कतार तैयार है.गालियाँ भी उच्च किस्म की—माँ-बहन वाली. ऐसे लोग किसी विषय
के विभिन्न पक्षों पर बहस नहीं कर सकते , ना करने की क्षमता रखते हैं, इन्हें ‘सबसे अच्छा’ या ‘सबसे बुरा’ में चीजों को बांटने की
आदत सी हो गई है. ये मानने को तैयार नहीं कि किसी धर्म, किसी दल या किसी शख्सियत
की कुछ बातें अच्छी हो सकती हैं और कुछ बुरी. इनपर अतिवादी मानसिकता हावी है
जिसमें विश्लेषण करने की ताक़त नहीं है बल्कि हाँ और ना में फ़ैसला करने की
जल्दबाज़ी भरी हुई है.. पिछले कुछ समय में सोशल साइट्स पर ऐसे लोगों की तादाद बढ़ती
जा रही है...जो लोग वाकई तार्किक तरीके से अपनी बात रखते हैं वे कहीं-न-कहीं हताश
हो रहे हैं क्योंकि सियार वाली हुआँ-हुआँ प्रवृत्ति को वे अपना नहीं पाते हैं, और बेवजह
अपनी क्रिएटिविटी को गालियों की भेंट चढ़ा देना भी गँवारा नहीं है. संख्या के
लिहाज़ से यह अतिवादी समर्थक वर्ग अन्य की तुलना में बेहद बड़ा दिखता है (मेरी समझ
में), लिहाज़ा रचनात्मकता के लिए एक बेहतर विकल्प होने के बावजूद फेसबुक और ट्विटर
जैसे साधन अब डराने लगे हैं.
तकनीक का सही इस्तेमाल करें तो ताकत कई गुणा बढ़ जाती है, और तकनीक का बेजा
इस्तेमाल हमारे लिए पतन के रास्ते भी खोल देती है. सवाल है कि क्या हम सिर्फ इस
बात से खुश हो सकते हैं कि देश में इंटरनेट का जाल बढ़ रहा है, वाईफाई सिटी बनाने
की योजनाओं का विस्तार हो रहा है,इंटरनेट उपभोक्ताओं और सोशल साइट्स यूजर्स की
तादाद में रोज़ इज़ाफ़ा हो रहा है या इन सब उपलब्धियों के साथ ही हमें तुरंत चेतने
की भी जरूरत है ताकि इंटरनेट की दुनिया में हमारे कदम इतने आड़े-तिरछे ना पड़ें कि
समाज की संरचना विकृत होने लगे. अभिव्यक्ति की ऐसी आज़ादी किसी काम की नहीं जो
जाने-अनजाने हमारी नींव को ही हिला दे. सरकारी और निजी दोनों स्तरों पर अब उन
शर्तों की दरकार है जिससे अतिवादियों की प्रतिक्रियाओं पर लगाम लगाई जा सके. कुछ
कहने के बेलगाम तरीकों की निगरानी की जा सके. रीज़नेबल रिस्ट्रीक्सन्स का सख्ती से
लागू होना सोशल मीडिया साइट्स के लिए भी उतना ही ज़रूरी हैं जितना कि प्रेस या
अभिव्यक्ति के अन्य साधनों के लिए.साइबर क्राइम को व्यापक रूप से परिभाषित कर ‘कुछ भी कह देने की जिद्द’ पर लगाम लगानी होगी ताकि
फेसबुक और ट्विटर जैसे साधनों पर स्वच्छ बहस छिड़े, तकनीक के ज़रिए रचनात्मकता को
मंच मिले, अपनी बातों को कहने में कहीं कोई डर ना हो ,हम आपस में जुड़ें ना कि
इंसानी संबंध, ज़हर पी-पीकर जर्जर हो जाएँ.
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