आइए
डरें,
डरने
का वक्त है, माहौल है,
मजबूरी
तो है ही--
क्योंकि,
डरिएगा नहीं,
तो
डरा दिए जाइएगा।
पार्टी-पोलटिक्स,
कोर्ट-कचहरी
थाना-पुलिस
के फेरा में पड़े जहाँ—
समझिए
ज़िंदगी बरबाद।
मीठे-मीठे
बात में धमकिया देंगे लोग
कि
कचहरी के फेरा में मत पड़िए साहब,
नहीं
तो जूता खिया जाएगा घसीटते-घसीटते,
खून
सूख जाएगा जब घुड़कियाएगा पुलिसवाला,
कानून
बतियाने के जुर्म में सिखा देगा आपको कानून..
जमीन-जायदाद
बेचते फिरिएगा केस लड़ने में
जान
साँसत में पड़ा, सो अलग।
फिर?
फिर,इतना
ताम झाम में काहें जान दें भाई.
बेहतर
ज़िंदगी पाने का सबक अगर यही है,
तो
आइए डरना ही सीख लें।
फिर?
फिर,जिंदगी
में कुछ मिले-ना-मिले गुरू,
डराना
तो पक्का सीख जाएंगे,
उनकी
तरह,
जिन्होंने
आपको डरा-डरा कर.
सीखा
दिया डरना। ---अमृत उपाध्याय (17-07-15)
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