----अमृत उपाध्याय
(1)
उस
लड़की को,
किसी
सिरफिरे ने चाकू मारा है,
दिनदहाड़े।
वह
सड़क पर गिरी है,
बदहवास-सी,
ख़ून
में सनी है,उसकी
देह,उसके
कपड़े।
पलटती
जा रही हैं उसकी आँखें,
पर उलट रही आँखों से,
उसने
देख ली है भीड़,
मर्दों
की।
उसे आस है,
बच जाएगी उसकी जान।
उसने सुनी है इन मर्दों की दहाड़,
उसने देखा है मर्द की आँख का क्रोध,
वो समझती है,
अपने देश के मर्दों की नज़र में,
औरत की इज़्ज़त।
उसने पढ़ी है,
प्राउड टू बी
राजपूत, ब्राह्मण,
प्राउड टू बी इंडियन, बिहारी, गुजराती
वग़ैरह- वग़ैरह वाली पोस्ट।
उसे याद आ रहे हैं,
मर्दों की ज़ुबानी सुने,
बड़वारिगी वाले किस्से।
उसे पता है पृथ्वीराज औऱ महाराणा प्रताप के बारे में,
उसने सुना है अर्जुन ,भीम और कृष्ण के बारे में,
वो राम के नाम पर क़त्लेआम को तैयार मर्दों को जानती है।
नसें फड़फड़ाते मर्दों को,
भुजा से मसलने वालों को पढ़ा है उसने।
उसने तस्वीरें देखी हैं,
गाय चुराने वालों को पीट-पीट कर मार डालने वाली।
उसे याद है स्टेशन पर लिट्टी चुराने वाले की पिटाई,
पीटने वाले राहगीरों का लाल सुर्ख़ चेहरा भी।
वो मिली है दंगा के समय
गर्दन उतारने की ख़्वाहिश रखने वालों से,
वो जानती है गौरवमयी इतिहास पर,
जान न्योंछावर करने को तैयार मर्दों को।
वो जानती है युद्ध के इंतजार में बैठे मर्दों को,
उसे पता है कश्मीर के लिए लहू बहा सकने वालों का डेरा।
उसे भरोसा है अपने देश के मर्दों पर,
बच जाएगी उसकी जान।
भीड़ में से बढ़ेगा कोई आगे,
देगा चार हाथ-- उस सिरफिरे को
चारों तरफ से
घिर जाएगा वो हत्यारा।
उसे आस है।
(2)
उस सिरफिरे के
हाथ में चाकू है,
वो बेचैन है, पागल-सा
लड़की की देह के इर्द-गिर्द,
तिलमिलाया सा मंडरा रहा है,
एक घेरा बना चुका है वो।
घेरे के पार खड़े हैं हज़ारों मर्द,
घेरे के पास रूकती जा रही हैं गाड़ियाँ.
थम जा रहे हैं गुज़र रहे मर्दों के क़दम।
बढ़ती जा रही है,
उचक-उचक कर देखने वालों की भीड़।
वो फिर दौड़ा है लड़की की तरफ,
कोई मर्द नहीं आ रहा आगे,
कोई मर्द दहाड़ा नहीं अबतक,
कोई नहीं रोक रहा सनकी को,
हत्यारा उतार देता है चाकू का अगला वार पेट में,
अंतड़ियाँ कट गईं हैं लड़की की,
वो चीखी है बहुत तेज़,
आसमान का कलेजा फाड़ देने वाली है उसकी चीख,
कुछ क़दम पीछे हट गई है मर्दों की जमात,
आँखें तेज़ी से घूम रही हैं उसकी,
धुँधली होती जा रही है मर्दों की भीड़।
(3)
शून्य में धँस रही है वो,
दिमाग़ में उतर रही हैं कुछ और यादें,
याद आ रही है उसे ,
औरतों की इज़्ज़त करने वालों के मुँह से झरती
माँ-बहन
की गालियाँ,
याद आ रही है उसे,
अपनी छाती पर
टिकी उस अधेड़ की निगाह,
याद है उसे बस, ट्रेन, सड़क, मुहल्ले-टोले में,
रोज़ आँखों से
देह चीरते मर्द।
याद आ रही है उसे,
निर्भया ,
उसका जघन्य बलात्कार,
दर्दनाक मौत।
जेहन में नाच रही है सुखनी की लाश,
ऑनर किलिंग वाली रिपोर्ट।
दहेज की आग में जलाई गई सहेली,
तकरीबन राख बन कर लौटी थी उसकी देह।
याद आ रही उसे गाँव वाली अम्माँ,
जिनके पहनने ओढ़ने, बोलने-चालने
और सोचने तक पर जड़ा था ताला।
जेहन में घूमती जा रही है औरतों की भीड़,
एक-दो,सौ-पचास, हजार- दो हजार नहीं
लाखों करोड़ों औरतें ,
जो चलती फिरती लाशें भर हैं अब।
मन में कौंध रहा है सवाल,
क्या उन्हें भी घेरकर खड़े थे मर्द?
(4)
दम तोड़ने लगी है वो,
टूट रही है आस।
उसकी आँखें बोझिल हो रही हैं,
साफ-साफ नहीं दिखता अब कुछ,
हत्यारा, भीड़ में शामिल मर्द-सा दिखता है,
सारे मर्द हत्यारे-सा दिखते हैं।
उसे महसूस हो रहा है.
चाकुओं से गोद रहा है वो उसका शरीर,
सड़क पर पसर रहा है गाढ़ा खून,
माँस के लोथड़े में तब्दील हो रही है उसकी देह।
याद आ रही है उसे अपनी माँ,
सुबह नाश्ता न कर कैसे भागी थी वो,
माँ नाराज़ थी आज।
घूम रहा है दिमाग़ में पिता का चेहरा,
रात-बिरात घर लौटने पर सूख जाता था उनका कलेजा,
रोज बस स्टैंड तक बेटी को छोड़ने की ज़िद्द,
आज नहीं आने दिया था उसने पिता को साथ ।
याद आ रही है उसे अपने भाई की शरारतें,
आज उसने छिपा दिया था बैग ,
शाम को पिज्जा खिलाने की शर्त पर दिया था वापस।
डूबती जा रही है आँखों की रोशनी,
शांत हो रहा है कान में कोलाहल,
गड्डमड्ड हो रही हैं आवाज़ें,
मिमियाती सी आने लगी है मर्दों की आवाज़,
अंतिम बार पड़ी है कान में कोई आवाज़,
काश कोई इंसान होता यहाँ,
तो बच गई होती
बुराड़ी वाली लड़की।
(दिल्ली के बुराड़ी हत्याकांड के सदमे में.....)
झकझोर देने वाली कविता।
ReplyDeleteशुक्रिया श्याम
Delete