फ़रेब ओढ़ने की हुनर से
तय होंगे
ज़िंदगी के रास्ते
नक़ाब की परत-दर-परत
बढ़ती जाएगी
तज़ुर्बे की शोहरत
आईने के उस पार
दरकती जाएगी
मेरी परछाईं
'मैं' धीरे-धीरे
बन जाएगा
'वह'
एक दिन जब तुम्हारी नज़रें
खोजेंगी मुझे 'उसके' हासिल में
'मैं' नहीं मिलूंगा तुम्हें
कभी भी, कहीं भी।
- अमृत उपाध्याय
बड़ी गहरी बात कही है आपने।
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