बिल्कुल सपाट-सी तो नहीं,
लेकिन इतनी,
कि चिढ़ा सकें
गाँव और कस्बों से
मोटरी बाँधकर आए लोगों को
और लजा जाएँ हमारे जैसे चंद लोग।
चंद क्यों?
पूरी जमात ही
जो रोटी की तलाश में
समा गए बड़े शहरों में।
जिन्हें सुकून नहीं मिलता सोचकर
कि भागते-दौड़ते लोगों के पीछे लगकर
सही तो किया न?
लजा तो मैं भी जाता हूँ,
रोज़।
उनकी तरह
जो नहीं जानते तहज़ीब,
कि सोये हुए इंसान की खुली आँखें
और खुली आँखों वाला सो रहा इंसान
इस सड़क की ज़रूरत है।
वाजिब ज़रूरत,
शायद।।
-- अमृत उपाध्याय
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