कोरोना ने ज़िंदगी की गाड़ी को उसी पटरी पर लाकर खड़ा कर दिया जहाँ से चलना शुरू किया था। कैसे ? ये बाद में बताउँगा। फिलहाल आगे बढ़ने से पहले एक महान इंसान द्वारा मुझे दी गई नसीहत को दुहरा दूँ। दुनिया गोल है, उस महान आदमी ने मुझसे तब कहा था जब मैं 17 साल का था। 18 साल और गुज़र गए अनुसंधान करने में। रिसर्च का हासिल यही है कि बात सही है।
ज़िंदगी भर मुझे लगता रहा कि पता नहीं लोग फिज़ूल की बातें क्यों लिखते हैं? हल्की,भारी,सीधी,टेढ़ी, न जाने कितनी तरह की बातों को अलग-अलग खाँचों में बैठाते आया हूँ अबतक। कुछ काम की थीं, कुछ बेमतलब की। ये भी फिज़ूल की ही बातें हैं, जो इसके पहले वाली दो लाइनों में पढ़ी आपने । आपके साथ भी होता होगा ऐसा, सबके साथ होता है शायद। इन्ट्रोवर्ट और एक्स्ट्रोवर्ट के चक्कर में बचपन में ही फँसने लगा था दिमाग। दिमाग का मोटर 12-13 साल की उम्र से ही रात को माइकल शुमाकर बन जाता था। उसी समय से रात-रात भर जागना, सोचना, लिखना, अकुलाना शुरू हो गया था। मन में उथल-पुथल मची रहती थी, बेचैनी-सी महसूस होती रहती थी। फिर डायरी, ए फोर, सादा कागज, भरा कागज, अखबार, ठोंगा जो सामने मिल जाए दिमाग में चल रही बातों को लिख देता था। कई बार पढ़ कर लगता था मैंने ही लिखा है ये? बाद में कभी ये भी लगता कि फालतू की बातें लिखी हैं। तब से लंबे समय तक न जाने दिमाग में कितनी बातें स्क्रिप्ट की शक्ल में बौखलाहट मचाती रहती थीं। कितने ही पन्ने रोज़ मन ही मन भर लिया करता था। लेकिन समय कब कहाँ किसकी मुट्ठी में बँधने के लिए मोहताज है। जो कागज पर नहीं उतरा, समझिए पैदा होने से पहले मर गया। अब ऐसा ही लगता है मुझे। उन खाँचों ने जो मैंने ही बना दिए थे, न जाने कितने शब्दों की जान ले ली जन्म से पहले ही। खैर, जो मर गए उन्हें कौन बचा लेता। लेकिन जिसे चाहकर भी आप नहीं मार सकते वो है तजुर्बा, अनुभव। धीरे-धीरे होने की चीज़ है, तो वैसै ही हुआ धीरे-धीरे। समझ आया कि – इट्स ऑल अबाउट परसेप्शन। मेरा आपके बारे में, आपका मेरे बारे में, मेरा मेरे बारे में और आपका आपके बारे में। या फिर किसी का किसी के बारे में बना हुआ परसेप्शन स्ट्रॉन्ग होता है बहुत। वो सोचने की उसी दिशा में आपको ले जाता है जहाँ सोचने का अंत होता है। और हाँ, आप जिस शब्द को बचपन से घोल कर पी चुके हैं मेरी तरह यानी मेच्योरिटी, वही मेच्योरिटी कहती है कि मेच्योर होने का एक मतलब ये भी है कि परसेप्शन क्रिएट करने से बचने की कोशिश कीजिए। कोशिश इसलिए क्योंकि परसेप्शन से पूरी तरह बचना लगभग नामुमकिन लगता है मुझे और बचने की कोशिश करना भी कठिन काम जान पड़ता है। फिर भी यही कहूँगा कि परसेप्शन बनाने से बचिए,दूसरों के बारे में भी और अपने बारे में भी। हाँ, सोचे-समझे तरीके से अगर किसी ने किसी के बारे में परसेप्शन बनाया-बिगाड़ा तो समझिए वो पहले से ही मेच्योर है। भावनात्मक चासनी में गोते लगाने वालों को बचने की ज़रूरत है। आपने भी न जाने कितनों पर मेच्योर न होने का आरोप मढ़ा होगा और कितनों को मेच्योरिटी की शाबाशी दी होगी- ये भी परसेप्शन ही है। हाल ही में मेरी एक सहयोगी ने अपनी एक कविता भेजकर मुझसे पूछा था कि मैंने पहली बार कविता लिखी है। बताइए अच्छा लिख पायी हूँ या नहीं? किन बातों का ख्याल रखना चाहिए, कौन सी गलतियाँ हुईं हैं? मैंने उनसे कहा कि अच्छा लिखने के लिए ज़रूरी है कि अच्छा लिखने की कोशिश भूल कर भी न की जाए और न ही ये सोच कर लिखिए कि पढ़ने वाले को कैसा लगेगा? अगर आपने ये सोच कर लिखना शुरू किया कि पढ़ने वाले को कैसा लगेगा, तो समझिए आपके और आपकी लिखने के बीच किसी तीसरे को आपने पहले ही इंट्री दे दी है। कहने का मतलब ये कि जो लिखने का मन करे लिखिए, ज़रूरी नहीं कि कलम उठा कर इतिहास ही रच डालिएगा। न ये ज़रूरी है कि साहित्य लिख डालिएगा। क्या रचेगा और कौन पढ़ेगा इसकी चिंता छोड़िए लेकिन लिखना मत छोड़िए, नहीं तो लिखने में जब मजा आना बंद हो जाएगा और लिखने की धार जब मंद पड़ जाएगी तो फिर सालों इंतजार करना पड़ेगा अपनी बारी फिर से आने का। दिमाग में बातों का बवंडर उठना बंद हो जाएगा। कुछ सूझना बंद हो जाएगा। फिर कई सालों बाद शायद अक्ल की घंटी फिर से टुनटुनाये। जैसा मेरे साथ हो रहा है आजकल। कुछ लोग इस बात की आलोचना कर सकते हैं कि आजकल कोई भी कुछ भी लिख रहा है। सारे लेखक हुए जा रहे हैं। ये भी हो सकता है कि किसी का लिखा पढ़कर आपको सिर पीटने का मन करे। लेकिन ज़माना प्रकाशकों और सेटेलाइट चैनलों से बहुत आगे निकल चुका है। ज़ाहिर है लिखने वालों और रचने वालों की भरमार है।इंटरनेट ने असीमित जगह पैदा किया है लिखने,बोलने या गाने वालों के लिए। मोनोपोली टूटने का बाइप्रोडक्ट है गैर-ज़रूरी चीजों की भरमार लगना। जिन्हें दुख होता है सोचकर कि आजकल लोग कुछ भी लिख रहे हैं, उनके सामने विकल्प है छोड़कर आगे बढ़ने का।
ये तो एक पक्ष है। दूसरा पक्ष ये है कि इंटरनेट पर उपजी नई पौध में से कई बेहद कमाल के राइटर हैं। अगर किसी प्रकाशक के भरोसे होते तो ये कभी सामने नहीं उभर सकते। इसलिए लिखिए, क्या पता कुछ बेमिसाल सामने आ जाए। जिन लोगों ने लिखना छोड़ दिया है 8-10 साल पहले मेरी तरह वो भी
लिख सकते हैं क्योंकि पढ़ने की उम्र नहीं होती तो लिखने की कौन-सी होती है? अब से लिखेंगे- कोई गारंटी नहीं है कि आपको अच्छा लगे या गलियाने का मन करे।
ऐसा ही तब सोचता था 17-18 साल पहले,बीच में इधर-उधर की सोचता रहा और अब फिर वैसा ही सोचने लगा हूँ। क्योंकि 17-18 साल में घूम-फिर कर वहीं खड़ा हो गया हूँ जहाँ से शुरू किया था। ऊपर लिखा था न- दुनिया गोल है, जहाँ से शुरू करते हैं वहीं पहुँच जाते हैं घूम-फिर कर। बस फर्क ये है कि आप वो नहीं होते जो चलते समय थे।
---अमृत उपाध्याय (21-05-20)
बहुत ही सरल एवं सटीक तरीके से आपने दर्शाया है कि दुनिया कैसे गोल है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर अमृत भैया जी।
बहुत शुक्रिया। ब्लॉग की एक खराबी ये है कि कई कमेंट्स अननोन नाम से आते हैं। नाम रहता तो और बेहतर होता।
ReplyDeleteएक फेमस डायलॉग है नाम में क्या रखा है हा हा हा बस एक मजाक था। वैसे मेरा नाम शशि शेखर है और मैं आपको व्यक्तिगत रूप से जानता हूं भाई फेस आप भी मुझे देखेंगे तो पहचान लेंगे हम लोग बहुत बार मिल चुके हैं।
DeleteIt's so interesting..
ReplyDeleteआपकी आवाज, लेखनी दोनों ही बहुत भाते है मन को...
ReplyDeleteसिविल सेवा की तैयारी और जिंदगी के संघर्ष में समय बचा पाना कठिन है.फिर भी समय बचा कर आपकी पोस्ट जरूर पढता हू.. शुक्रिया इतना अच्छा लिखने के लिए
शुक्रिया रमेश जी
Deleteधन्यवाद आपका ।
ReplyDeleteधन्यवाद आपका ।
ReplyDeleteधन्यवाद राकेश
Deleteशुक्रिया ओम
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