-अमृत उपाध्याय
सरसराती तेज़ तूफानी हवाएँ
दहशत उड़ेल रही हैं मुझमें
रात है घनघोर जिसमें
कड़कड़ाती बिजलियों के गरजने से
रगों में ख़ौफ़ के टुकड़े
पसरते जा रहे हैं
मैं इनसे बच के सोना चाहता हूँ
सुनहरे ख़्वाब की आग़ोश में
मुझे बस नींद आ जाए
मैं इनसे बच के सोना चाहता हूँ
कि जैसे माँ की कोख में
घुड़का हुआ
बेफ़िक्र पलटी मारते सोता है बच्चा
मैं इनसे बच के सोना चाहता हूँ
कि जैसे माली की हथेलियों से घिर कर
आँख मूँद अलसाता है एक नन्हा पौधा
मैं इनसे बच के सोना चाहता हूँ जैसे
हज़ारों फीट ऊँचे पर्वतों पर
टूटते चट्टानों से बेफिक्र होकर
गुनगुनी-सी धूप में
सोते हैं परिंदे
मैं इनसे बच के सोना चाहता हूँ
कि जैसे गहरी काली रात में
चुपचाप, बिना देखे दिखाए
फ़लक पर तान कर सोता है चंदा
मैं सोना चाहता हूँ
सुनहरे ख़्वाब की आग़ोश में
मुझे बस नींद आ जाए।।
---अमृत उपाध्याय
(Amrit Upadhyay)
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