Tuesday, May 4, 2021

रात महबूब हो जैसे!

                    

         -अमृत उपाध्याय 

मैं जब भी उजाले के हिस्से जाता हूँ

रात वापस खींच लाती है

रात महबूब हो जैसे।


आखिरी पहर तक सहलाती है मुझको

खूब बतियाती है मुझसे देर तक

सोने नहीं देती पर लोरी सुनाती है।


चांदनी ओढ़ लहराती है मुझमें,

हवाखोरी कराती है। 

रात इतराती है, इठलाती है, 

और कहकहाती है।

रात बेलौस-सी,

 बेफ़िक्री में जीना सिखाती है।


माज़ी में झाँकती है मेरे

बीते किस्से सुनाती है

बहुत कुछ अनकही और अनसुनी-सी 

मुझे अक्सर बताती है।

रात बीते हुए लम्हों को मेरे

बहुत क़रीब लाती है

मैं महसूस कर लेता हूँ उनको

जिन्हें अब मिल नहीं सकता।

मैं दस्तक दे दिया करता हूँ उनको

जिन्हें कुछ कह नहीं सकता।


रात तिलिस्म है, अय्यार है मानो

मैं जब भी उलझा रहता हूँ

वो हरदम जान जाती है

मेरे सीने में हर रेशे की उलझन

खोलती है वो

रात आईना हो जैसे

मुझे, मुझसे मिलाती है।

   

मैं जब भी उजाले के हिस्से जाता हूँ

रात वापस खींच लाती है।

रात महबूब हो जैसे।

             - अमृत उपाध्याय 

              (Amrit Upadhyay)


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